दर्शन मितवा
“अच्छा तो इधर आ।” वह औरत को घर के अंदर वाले कमरे में ले गया।
“देख, यहाँ कितना अंधेरा है…और जब मुझे उजाले की जरूरत पड़ती है…।” उसने जेब से दियासलाई निकाली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती जला दी।
कमरे में उजाला फैल
गया।
“देख, मुझे जब तक उजाला
चाहिए…यह जलती रहेगी।”
वह औरत उसकी और
देखती रही।
“जब मुझे इसकी जरूरत नहीं
होती तो…” कहते ही उसने मोमबत्ती को फूँक मार दी।
कमरे में अंधेरा पसर
गया।
उस औरत ने उसके हाथ
से दियासलाई की डिबिया ली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती फिर से जला दी।
“पर, औरत कोई मोमबत्ती नहीं
होती।” उस औरत के होंठ हिले, “जिसे जब जी चाहे गले से लगा लो और जब जी चाहे बुझा दो।”
दोनों की नज़रें
मिलीं।
“…समझे। और मैं एक औरत हूँ,
मोमबत्ती नहीं।”
वह आदमी चुप था।
औरत के चेहरे पर
अनोखी चमक थी।
और अब मोमबत्ती जल
रही थी।
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