Sunday 29 April 2012

बुजुर्ग रिक्शावाला


                      
                   
श्याम सुन्दर अग्रवाल

गली के मोड़ पर पहुँचा तो आज फिर वही बुजुर्ग रिक्शावाला खड़ा था। तीन दिन से वही खड़ा मिलता है, सुबह-सुबह। मन ने कहा, इसके रिक्शा में बैठने से तो पैदल ही चला चलूँ, बीस मिनट का तो रास्ता है। घड़ी देखी तो इतना ही समय बचा था। कहीं बस ही न निकल जाए, सोच कर मन कड़ा किया और रिक्शा में बैठ गया।
मन बना लिया था कि आज रिक्शावाले की ओर बिलकुल नहीं देखना। इधर-उधर देखता रहूँगा। पिछले तीन दिनों से इसी रिक्शा में बैठता रहा हूँ। जब भी रिक्शावाले पर निगाह टिकती, मैं वहीं उतरने को मज़बूर हो जाता।
पैडलों पर जोर पड़ने की आवाज़ सुनाई दी और रिक्शा चल पड़ा। मैं इधर-उधर देखने लगा। ‘ग्रीन मोटर्सका बोर्ड दिखा तो याद आया कि पहले दिन तो यहीं उतर गया था। बहाना बना दिया था कि दोस्त ने जाना है, उसके साथ ही चला जाऊँगा। अगले दिन मन को बहुत समझाया था, लेकिन फिर भी दो गली आगे तक ही जा सका था।
‘कड़-कड़’ की आवाज़ ने मेरी तंद्रा को भंग किया। रिक्शा की चेन उतर गई थी। मेरी निगाह रिक्शावाले पर चली गई। उसके एक पाँव में पट्टी बंधी हुई थी और पाँवों में जूते भी नहीं थे। मुझे याद आया कि जब बापू के पाँव में कील लग गई थी, वह भी ठंड में इसी तरह नंगे पाँव फिरता रहा था। चेन ठीक कर बुजुर्ग ने पाजामा ऊपर चढ़ाया तो निगाह ऊपर तक चली गई। बापू भी पाजामा इसी तरह ऊपर चढ़ा लेता था। मुझे लगा, जैसे रिक्शावाला कुछ बोल रहा है। मेरा ध्यान खुद-ब-खुद उस के सिर की ओर चला गया। उसकी ढ़ीली सी पगड़ी और बोलते हुए सिर हिलाने के ढंग ने मुझे भीतर तक हिला दिया। बहुत प्रयास के पश्चात भी मैं उस पर से अपनी नज़र नहीं हटा सका। बेइख्त्यार मेरे मुख से निकल गया, बापू, रिक्शा रोक।
वह बोला, क्या हो गया बाबू जी?
कुछ नहीं, एक ज़रूरी काम याद आ गया!मैंने रिक्शा से उतर उसको पाँच रुपये का नोट देते हुए कहा।
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Tuesday 17 April 2012

खुशी


हरप्रीत सिंह राणा

बहू-बेटे ने बापू की चारपाई पशुओं के बाड़े में डाल दी। एक दिन सुबह-सुबह खुशी में मस्त बेटा मिठाई का डिब्बा ले बापू के पास जाकर बोला, बापू! बधाई हो! तेरे पोता हुआ है।
बापू एकटक बेटे की ओर देखता रहा।
क्या बात बापू, तुझे खुशी नहीं हुई?बेटा बापू के व्यवहार से झुँझला कर बोला।
पुत्तर! खुशी तो बहुत है…पर मैं तेरे बारे में सोच रहा हूँ…
क्या बापू? बेटे ने उत्सुकता से पूछा।
अब मेरे बाद इस चारपाई का वारिस तूने ही बनना है…।
बापू की व्यंग्यभरी बात के आगे बेटा निरुत्तर था।
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Tuesday 10 April 2012

बीमार सपना


अमृत लाल मन्नन

रामलाल अपने दोस्त के फोन द्वारा मिले संदेश अनुसार उसे डॉ. राजेश के क्लिनिक पर मिलने के लिए तैयार होने लगा। वह सोच रहा था कि चमन लाल को कैसे ज़रूरत पड़ गई यहाँ? उसका तो अपना बड़ा बेटा इस समय एम.बी.बी.एस के फाइनल में पढ़ता है।
चमन लाल उसका बचपन का दोस्त है। उसने कारोबार शुरू करने के बाद यह तय किया कि वह दोनों बेटों को डॉक्टर बनाएगा। उसका विश्वास था कि डॉक्टरी के व्यवसाय में ही सबसे अधिक लाभ है। दो बेटे डॉक्टर, दो बहुएँ डॉक्टर, बड़ा-सा नर्सिंग-होम और फिर पैसों की बरसात। इसलिए उसने शुरू से ही बेटों को पढ़ाई के सिवा कुछ नहीं करने दिया। स्कूल, पढ़ाई, ट्यूशनें, पढ़ाई। और पहुँचा दिए दोनों बेटे मैडीकल कालेज।
रामलाल जब डॉ. राजेश के क्लिनिक पर पहुँचा, तब चमन लाल बाहर ही उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। रामलाल ने मिलते ही बेटों का हाल पूछा।
 चमन लाल ने कहा, क्या बताऊँ, यार! बड़ा बेटा आखरी साल में फेल हो गया। चलो वह भी कोई बात नहीं। पर उसका तो मन ही उचाट हो गया पढ़ाई से।
तूने पढ़ाया भी तो बहुत है उसे। चलो कोई बात नहीं।राम लाल ने उसे ढाढ़स बंधाया।
पढ़ता तो है, पर अब साहित्य की किताबे पढ़ता है। कहता है मैं कहानियाँ लिखूंगा और पता नहीं क्या कुछ…।
चल चिंता न कर ज्यादा। अच्छा यह बता आज यहाँ कैसे आया?
वही तो तुझे बता रहा हूं। अपने डॉक्टर को ही लाया हूं दिखाने।
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Monday 2 April 2012

इज़्ज़त


सुखदेव सिंह शाँत

पड़ोसियों के घर के आगे रोज़ शाम कभी कोई स्कूटर वाला आ जाता, कभी कोई कार वाला। कभी कोई साइकिल पर थैला लटकाए आ पहुँचता। कई बार तो दो-दो, चार-चार आदमी एक साथ भी आ जाते।
माता प्रीतम कौर अकसर अपने बेटे जसवंत से शिकायत करती, नौकरी तो बेटे तू भी करता है, पर पड़ोसियों के मोहन की ओर देख। इसकी भला कैसी नौकरी है? कोई न कोई आया ही रहता है। अपने तो कोई आता ही नहीं। उसकी माँ खुशी से उड़ती फिरती है।
बेटा माँ के पास अपना दुःख व्यक्त करता, माँ, इस युग में अध्यापक को कौन पूछता है! कहने को तो हम कौम के निर्माता होते हैं, पर समाज में हमारा मोल एक टका भी नहीं।
और फिर अचानक लड़के की ड्यूटी बोर्ड की वार्षिक परीक्षा में लग गई।
पता नहीं लोग कहाँ-कहाँ से घर पूछ कर उनके आ पहुँचे।
शाम को तो जैसे कतार ही लग गई। प्रीतम कौर के पाँव ज़मीन पर नहीं लग रहे थे। जैसे उसने मोहन की माँ से कोई बड़ा मोर्चा जीत लिया हो।
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