Sunday 31 May 2009

माँ की ज़रूरत




डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
“ कर लो पता अपने काम का, साथ ही उन्हें चेयरमैन बनने की बधाई भी दे आओ, इस बहाने।”
पत्नी ने कहा तो भारती चला गया, वरना वह तो कह देता था,‘ देख,‘गर काम होना होगा तो सरदूल सिंह खुद ही सूचित कर देगा। हर चार-पाँच दिन के बाद मुलाकात हो ही जाती है।’
तबादलों की राजनीति वह समझता था। कैसे मंत्री ने विभाग संभालते ही सबसे पहले तबादलों का ही काम किया। बदली के आदेश हाथ में पहुँचते ही भारती ने अपनी हाज़िरी-रिपोर्ट दी और योजना बनाने लगा कि क्या किया जाए– वहाँ रहे, बच्चों को साथ ले जाए या फिर रोजाना आए-जाए। बच्चों की पढ़ाई के मद्देनज़र आख़िरी निर्णय यही हुआ कि अभी यहीं रहते हैं और ‘दंपति-केस’ के आधार पर एक अर्जी डाल देते हैं। और तो भारती के वश में कुछ था भी नहीं। फिर पत्नी के कहने पर एक अर्जी राजनीतिक साख वाले पड़ोसी सरदूल सिंह को दे आया था।
सरदूल सिंह घर पर ही मिल गया। वह भारती को गर्मजोशी से मिला। भारती को भी अच्छा लगा। आराम से बैठ, चाय मँगवा कर सरदूल बोला, “ छोटे भाई! वह अर्जी मैने तो उस वक्त पढ़ी नहीं, वह अर्जी तूने अपनी तरफ से क्यों लिखी? माता जी की तरफ से लिखनी थी। ऐसा कर, एक नई अर्जी लिख, माता जी की तरफ से। लिख कि मैं एक बूढ़ी औरत हूँ, अकसर बीमार रहती हूँ। मेरी बहू भी नौकरी करती है…बच्चे छोटे हैं, देर-सवेर दवाई की ज़रूरत पड़ती है…मेरे बेटे के पास रहने से मैं……। कुछ इस तरह से बात बना। बाकी तू समझदार है। मैने परसों फिर जाना है, मंत्री से भी मुलाकात होगी।” उसने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
भारती ने सिर हिलाया, हाथ मिलाया और घर की तरफ चल दिया। माँ की तरफ से अर्जी लिखी जाए। माँ को मेरी ज़रूरत है…माँ बीमार रहती है…कमाल! बताओ अच्छी-भली माँ को यूँ ही बीमार कर दूँ। सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल का नाश्ता बना कर देती है। हम दोनों तो ड्यूटी पर जाने की भाग-दौड़ में होते हैं। दोपहर को आते हैं तो खाना तैयार मिलता है। मैं तो कई बार कह चुका हूँ कि माँ बर्तन साफ करने के लिए नौकरानी रख लेते हैं, पर माँ नहीं रखने देती। कहती है,‘ मैं सारा दिन बेकार क्या करती हूँ।’…कहता लिख दे, बेटे का घर में रहना ज़रूरी है। मेरी बीमारी के कारण मुझे इसकी ज़रूरत है। कोई पूछे इससे कि माँ की हमें ज़रूरत है कि…। नहीं-नहीं, माँ की तरफ से नहीं लिखी जा सकती अर्जी।
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गिद्ध


श्याम सुन्दर अग्रवाल
कोसी धूप में बैठे चारों मित्र शनिवार की छुट्टी का आनंद ले रहे थे। सभी अपने-अपने दफ्तर में काम करने वाली लड़कियों के किस्से छेड़े हुए थे। पास में रखा ट्रांजिस्टर फिल्मी गीत सुना रहा था। ट्रांजिस्टर ने अचानक गीत बंद कर वयोवृद्ध नेता, महान स्वतंत्रता सेनानी तथा समाजसेवी ‘आज़ाद जी’ के निधन का शोक-समाचार सुनाया तो सभी को गहरा आघात लगा।
“आज़ाद जी ने देश व समाज को इतना कुछ दिया, थोड़ा हमें भी दे जाते!” पहले ने अपना दुख व्यक्त किया।
“इसे मरना तो था ही, दो दिन और ठहर जाता। भला शनिवार भी कोई मरने का दिन है!” दूसरे की आवाज में झुंझलाहट थी।
“बुढ्ढा दो दिन न सही, एक दिन तो और सांस खींच ही सकता था। रविवार को मरता तो सोमवार की तो सरकार छुट्टी करती ही।” यह तीसरा था।
“आज़ाद जिस दिन बीमार हो अस्पताल पहुँचा, मैं तो उसी दिन से इसकी मौत पर दो छुट्टियों की आस लगाए बैठा था। सोचा था, एक-आध छुट्टी और साथ मिला कर कहीं घूम-फिर आयेंगे। पर इसने सारी उम्मीदों पे पानी फेर दिया!” चौथे ने कहा तो वे सभी गहरे गम में डूब गए।
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