Thursday 27 May 2010

गुब्बारा


डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति


गली में से गुब्बारेवाला रोज गुजरता। वह बाहर खड़े बच्चों को गुब्बारा पकड़ा देता और बच्चा माँ-बाप को दिखाता। फिर बच्चा खुद ही पैसे दे आता, या उसके माँ-बाप। इसी तरह एक दिन मेरी बेटी से हुआ। मैं उठकर बाहर गया और गुब्बारे का एक रुपया दे आया। दूसरे दिन फिर बेटी ने वैसा ही किया।मैने कहा, “बेटे, क्या करना है गुब्बारा? रहने दे न!” पर वह कहाँ मानती थी, रुपया ले ही गई। तीसरे दिन जब रुपया दिया तो लगा कि भई रोज-रोज तो यह काम ठीक नहीं। एक रुपया रोज महज दस मिनट के लिए। अभी फट जाएगा।
मैने आराम से बैठकर बेटी को समझाया, “बेटे! गुब्बारा कोई खाने की चीज है? नहीं न! एक मिनट में ही फट जाताहै। गुब्बारा अच्छा नहीं होता। अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते। हम बाजार से कोई अच्छी चीज लेकर आएंगे।”
अगले दिन जब गुब्बारेवाले की आवाज गली से आई तो बेटी बाहर न निकली और मेरी तरफ देखकर कहने लगी, “गुब्बारा अच्छा नहीं होता। भैया रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊँ कि वह चला जाए।”
“वह आप ही चला जाएगा।” मैने कहा। वह बैठ गई।
उससे अगले दिन गुब्बारेवाले की आवाज सुनकर वह बाहर जाने लगी तो मुझे देख बोली, “मैं गुब्बारा नहीं लूँगी।” और वह वापस आई तो, “अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते न? राजू तो अच्छा बच्चा नहीं है। गुब्बारा तो मिनट में फट जाता है।” कहती हुई अपनी मम्मी के पास रसोई में चली गई और उससे बोली, “मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो न!”

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Monday 24 May 2010

अंधेरा






कुलजीत ग़ज़ल


उस दिन बस कुछ ज्यादा ही लेट हो गई थी। सर्दी के कारण सूरज के धुंध में छिपने से एकदम अंधेरा हो गया था। मन में डर था कि आज घर के सदस्यों ने मुझे नहीं छोड़ना। खैर! डरते-डरते अभी मैने घर के दरवाजे के भीतर पाँव रखा ही था कि सारा परिवार मेरी तरफ खा जाने वाली नज़रों से देखने लगा।

माँ मेरे पास आई और बिना कुछ कहे खींच कर ऐसा थप्पड़ मेरी गाल पर जड़ा कि मैं चकरा कर जमीन पर जा गिरी। किताबें मेरे हाथ से छूट कर जमीन पर गिर गईं। साथ खड़ा मेरा बाप भी लाल-पीला हो रहा था, आई है इस समय, क्या कहते होंगे लोग? फलां की बहन-बेटी इस समय सड़कों पर घूमती-फिरती है, शर्म नहीं आती इसे।

बता कलमुंही, तुझे हमारी इज्जत का कुछ ख्याल भी है या नहीं?माँ ने मुझे बेदर्दी से झिंझोड़ा।

भाई ने भी माथे पर सौ शिकन डाल कर मुँह फेर लिया और मैं पत्थर बनी उनके सामने निरुत्तर हो गई थी।

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Thursday 13 May 2010

रिश्ते

यादविंदर सिद्धू

अरे तू बड़ा मास्टर बना फिरता है, मुझे भी कोई चार अक्षर सिखा दे।दीपी ने अपने छोटे देवर से कहा।
पढ़ा देता हूँ भाभी, यह कौन सी बड़ी बात है।वह खचरी हंसी हंसता है।
अच्छा मैं पढ़ने बैठ रही हूँ।दीपी किताब खोल कर बैठ जाती है।
मास्टर जी, यह क्या है?” दीपी एक अक्षर पर उंगली रख कर पूछती है।
भाभी, तुम बहुत सुंदर हो।
मास्टर जी, अब मैं आपकी भाभी नहीं, विद्यार्थी हूँ।
अच्छा-अच्छा, भाभी सच-सच बताना रात को जब तुम बिजली…”
मैने कहा जी, अब आप मास्टर हो और मैं…”
तब तुम्हें मेरा ख्याल…”
वह कुछ कह ही रहा था कि दीपी का थप्पड़ उसके मुंह पर पड़ा। वह बोली, “स्कूल में भी यही करतूतें करता होगा।बड़ा मास्टर बना फिरता है! लच्छन देखो इस की मास्टरी के।
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Saturday 1 May 2010

लोकतंत्र



अमर गम्भीर

गाड़ी तेज रफ्तार से मंजिल की ओर बढ़ रही थी। डिब्बे में बैठी सवारियां अपनी बातों में मस्त थीं।

मेरा दिल करता है, जंजीर खींचूं।एक यात्री बोला।

क्यों?

बस मन करता है।उसने अपनी इच्छा प्रकट की।

और फिर सबने मिल कर फैसला किया, इसे जंजीर खींच लेने दो। सभी मिलकर जुर्माने की रकम अदा कर देंगे।

सभी सहमत थे, पर एक असहमत था।

मैं क्यों दूँ पैसे! यह क्यों खींचे जंजीर…करे कोई, भरे कोई, यह कहाँ का नियम है?

पर तब तक यात्री जंजीर खींच चुका था। जंजीर खींचते ही गाड़ी रुक गई। गार्ड उस डिब्बे में दाखिल हुआ। सभी ने मिल कर उस व्यक्ति पर दोष लगा दिया, जिसने उनकी हाँ में हाँ नहीं मिलाई थी।

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