Sunday 25 May 2014

गरीब की जाई



प्रीत नीतपुर

ससुराल से पहली बार  वह मायके आई थी। गाँव के बस-अड्डे पर उतरी तो उसे बस-अड्डा कुछ बदला-बदला सा लगा। यह वही बस-अड्डा था, जहां से वह रोज़ाना घास की गठरी लेकर गुज़रती थी।
इतनी जल्दी, इतना कुछ कैसे बदल गया?वह बुड़बुड़ाई। वास्तव में तो कुछ भी नहीं बदला था, बस उसका भ्रम ही था।
बेटी भुच्चो, ठीक है…?फलों की रेहड़ी लगाने वाले, दलितों की बस्ती में रहते रिश्ते के ताऊ ने उसका हालचाल पूछा।
उसे यूँ लगा, जैसे ताऊ ने उसका अपमान किया हो। उसका मन बुझ सा गया। वह कहना चाहती थी, ताऊ! अब मैं भुच्चो नहीं, भूपिंदर कौर हूँ…भूपिंदर कौर…।’
हाँ ताऊ, मैं ठीक हूँ।कहकर वह अपने पति के नज़दीक होती बोली, बच्चों के लिए कोई चीज ले लें।
हां, ले ले।पति को भी याद आया कि पहली बार ससुराल खाली हाथ नहीं जाते।
भुच्चो के पूछने पर रेहड़ी वाले ने बताया, केले चौदह रुपये दर्जन…संतरे चौबीस रुपये…और सेब…।
बड़े तीन भाइयों के कितने बच्चे हैं, दर्जन केलों में से तो एक-एक भी हिस्से नहीं आएगा।–भुच्चो ने सोचा और धीमी-सी आवाज़ में घरवाले से पूछा, फिर कितने लें…?
देख ले…’गर दस से ज्यादा खर्च लिए तो वापसी का किराय नहीं बचेगा…।
हाय रब्बा!एक लंबी आह उसके भीतर आग की लपट की तरह फिर गई।
‘हम गरीबों की जाई, मायके में भी भुच्चो और ससुराल में भी भुच्चो!
भुच्चो को यूँ महसूस हुआ जैसे वह बिवाई-फटे नंगे पाँव घास की पहले से भी भारी गठरी उठाए अड्डे में से गुज़र रही हो।
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Thursday 15 May 2014

मुहर



निरंजन बोहा

बुढ़ापा-पेंशन के फार्म तसदीक करवाने के लिए वह अपने गाँव की महिला सरपंच के घर गया। वह भैंस की धार निकाल रही थी।
जी, इन फार्मों पर आपके हस्ताक्षर करवाने हैं।मैंने विनती की।
सरदार जी मंडी गए हैं, शाम तक आएँगे…फार्म-फूर्म का काम वे ही करते हैं। शाम को आ जाना।महिला सरपंच ने बिना फार्म देखे कह दिया।
औरत को सत्ता में भागीदार बनाने के लिए बने कानून की सार्थकता संबंधी विचार करता, मैं निराश हो घर लौट आया।
शाम को सरपंच का पति करतार सिंह घर ही मिल गया। उसने मेरे फार्मों पर झट से मुहर लगा दी। फिर जूठे बर्तन माँज रही अपनी पत्नी को आदेशात्मक स्वर में कहा, अरी, यहाँ हस्ताक्षर कर दे, अपने ही आदमी हैं।
मुझे लगा जैसे करतार सिंह ने मेरे फार्म पर एक की जगह दो मुहरें लगा दी हों।
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Friday 2 May 2014

प्रश्नचिह्न



विवेक

यहीं तो रखी थी, किधर गई?राम शरण ने अलमारी के खानों में ऊपर-नीचे हाथ मारते हुए अपने-आप से कहा। भूख से शायद उसके पेट में थोड़ा दर्द भी हो रहा था। ऊपर से ज़िंदगी का अंतिम पहर। उस ने फिर से रोटी ढूँढ़ने की कोशिश की। रात की बची एक रोटी उसने सुबह के लिए सँभाल कर रख ली थी।
राम शरण अक्सर ही रात के भोजन में से एक रोटी बचा कर अलमारी में रख लेता था। सभी ओर देख कर भी उसे रोटी न मिली। अंततः बेहाल अवस्था में वह चारपाई पर बैठ गया।
दादा जी, आप क्या ढूँढ़ रहे थे?उसके सात वर्षीय पोते ने पूछा।
बेटे, यहाँ अलमारी में एक रोटी रखी थी, पता नहीं कहाँ गई?राम शरण ने परेशानी की हालत में अपने पोते से कहा।
वह रोटी तो मैंने खाली। साथ ही मम्मी को भी कह दिया कि दादा जी की अलमारी में रोटी पड़ी थी। मम्मी कहती, अब तेरे दादा जी को फालतू रोटी नहीं देनी, खाते तो है नहीं, यूँ ही सँभाल कर रख देते हैं।
बेटे, तू रोटी खा लेता, पर अपनी मम्मी को न बताता। मुझे तो पहले ही रोटी कम मिलती है। मैं तो रोटी बचा-बचा कर खाता हूँ।रोटी की कमी और उदासी प्रश्नचिह्न बन कर राम शरण के चेहरे पर लटक गईं।
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