Saturday 15 March 2014

सूखा


रिपुदमन सिंह रूप
 
रविंदर सिंह वकील गर्मी का मारा लॉन में जाकर बैठ गया। बार-रूम में कूलरों के बावजूद बहुत उमस थी। उसने अपना कोट उतार कर कुर्सी के पीछे टाँग दिया। पर अभी भी उसे चैन नहीं पड़ रहा था। दो-ढाई महीने से यही हाल था। बारिश आने की कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहे थे। वह ऊपर आसमान की तरफ देख रहा था।
क्या हाल है वकील साहब? ऊपर क्या देख रहे हो?…बारिश नहीं आने वाली इस बार…अपने काम की सुनाओ, कैसा चल रहा है?
काम! कैसा काम!…बस बैठे हैं बेकार…अब आप जैसा काम तो है नहीं, सर्विस-मैटर का…मुलाजिमों ने आना होता है, तनख़्वाह जो हर महीने मिलती है…यहाँ तो दो महीने सूखे ही गुज़र गए।
क्या बात?…आप का तो मोटा ही काम होता है, क्रिमिनल का…मोटी फीस है…आपके क्रिमिनल केसों में तो कई बार एक केस ही पूरे महीने की रोटी निकाल जाता है।
केस तो तब होगा, जब कोई लड़ाई-झगड़ा होगा…कोई बेल करवाएगा, एंटीसिपेटरी करवाएगा…पर साला जब कोई लड़ाई-झगड़ा ही नहीं होना तो…
अच्छा! केसों को क्या हो गया? आपका तो काम अच्छा है।
बराड़ साहब! सूखा जट्ट के नहीं पड़ा…इस बार सूखा हमारे पड़ा हुआ है…आषाढ़ गुज़र गया और सावन भी…भादों जा रहा है…पर बारिश की एक बूँद तक नहीं गिरी। जट्ट लड़ें तो किसके आसरे…अगर फसल अच्छी हो, खेत लहराएं तो ही जट्ट शराब पीएगा…फिर ही छेड़छाड़ करेगा…उकसाएगा…उकसाया जाएगा…फिर उठाएगा गँडासा…सामने वाले का सिर फोड़ेगा…फिर ही आएँगे हमारे पास केस…सो भाई साहब! फसल तो एक तरफ रही, अब तो अगली फसल बोना भी मुश्किल नज़र आ रहा है…सो सूखा जाटों पर नहीं हम पर पड़ा है।
उसका बात सुनकर बराड़ दूसरी तरफ चला गया।
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Sunday 9 March 2014

इंतज़ार



मनप्रीत कौर भाटिया

बस सड़क पर तेजी से दौड़ी जा रही थी। पर अर्चना को लग रहा था जैसे बस की गति धीमी होती जा रही है। आज उसका आखरी पेपर अच्छा नहीं हुआ था, फिर भी वह राकेश से मिलने की खुशी में पगलाई हुई थी। आज तो उसने सदा के लिए राकेश का हो जाना था। अपना प्यार पाने के लिए, वह अपना घर-बार हमेशा के लिए छोड़ आई थी। शायद उसके घर वाले उन्हें कभी एक न होने देते।
तभी एकाएक बस रुक गई। पता चला कि एक्सीडेंट हो गया है। अर्चना ने खिड़की से झाँक कर देखाएक औरत लहू-लुहान हुई अपने बेटे की लाश से लिपटी बिलख रही थी। इस दृश्य ने अर्चना के दिमाग में खलबली मचा दी।
उसके दोनों भाई भी एक दिन इसी तरह सड़क दुर्घटना में मारे गए थे।
‘हाय! कितनी पीड़ा सही थी तब मेरे माता-पिता ने…क्या अब मेरे माता-पिता यह गम सह लेंगे कि मैं…?…नहीं, नहीं…अब तो मैं ही उनकी जान हूँ।…वे तो मर जाएँगे मेरे बिना…वह सदमा तो उन्होंने प्रभु की इच्छा समझ कर सह लिया था…पर यह सदमा…मेरे कारण होने वाली बदनामी…क्या वे…?
अर्चना घबरा गई ‘नहीं, नहीं,…यह मैं क्या करने जा रही हूँ। जवानी के जोश में पागल हुई मैं तो भूल ही गई। मुझे ईश्वर जितना प्यार करने वाले माता-पिता ही तो हैं।
वह बिना कुछ और विचारे, जल्दी से बस से उतरी और अपने होस्टल को लौट गई। होस्टल से सामान उठा शाम को वह घर पहुँची तो उसके इंतज़ार में आँखें बिछाए बैठी उसकी माँ उसे बाहों में लेकर बावलों की तरह चूमने लगी।
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Sunday 2 March 2014

दूध-पूत



लाल सिंह कलसी

मैंने कहा, कालू के बापू सो गया?बीरो ने संते को हिलाते हुए पूछा।
सो लेने दे, सुबह से काम करके थका पड़ा हूँ। मुश्किल से कहीं आँख लगी थी। बता क्या बात है?
वो न, आज छोटी डॉक्टरनी आई थी। कहती थी, अब तो छटा महीना है, अब कुछ नहीं हो सकता।बीरो ने नम आँखों से तरस भरी आवाज़ में कहा।
…तो अब क्या होगा? संता उछल कर उठ बैठा। उसके दिमाग में कई तरह के खर्चों का हिसाब-किताब घूमने लगा।
मैं क्या बताऊँ! डॉक्टरनी कहती थी, मैं तुम्हारी आगे बात करवा दूँगी।बीरो डरते-डरते बोली।
क्या…? क्या बात करवा देगी?संते का मुँह खुला रह गया।
यही कि किसी जरूरतमंद को बच्चा दिला देगी।बीरो ने सहजता से बात पूरी की।
अच्छा…! पर हम अपनी जान को किसी और के हाथों में कैसे दे देंगे, पागल।
नहीं, वह कहती थी कि कुछ पैसे भी दिलवा दूँगी।बीरो को जैसे पकी फसल जितना हौसला हो गया था।
कितने पैसे दिलवा देगी वह डॉक्टरनी?
यह तो मैंने बात नहीं की तेरे डर से। पर तू अपनी राय बता दे।
कम से कम पाँच हजार तो हों ही। चार तो सीबो के ब्याह का ही देना है और दो तेरे भतीजे के वक्त पकड़ा था, कपड़े वगैरा के लिए।
कभी किसी ने दूध-पूत भी बेचे हैं, कालू के बापू! यह तो हम मजबूरी के मारे जहर का घूँट पी रहे हैं।
यह दूध-पूत वाली बातें तू रहने दे, अब बिकता ही यही कुछ है…जब माँग कर दहेज लेते हैं तो बेटों का सौदा ही तो करते हैं…।
हाँ!…बात तो तेरी ठीक है, कालू के बापू! पर अगर लड़की हो गई तो?
चल सो जा, क्यों यूँ ही सिर खा रही है।संते ने खेस ओढ़ा और सो गया।
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