Tuesday 27 August 2013

बौने



निरंजन बोहा

अपने पति के व्यवहार में आई तबदीली को महसूस कर, वह खुश भी थी और हैरान भी। एक मुद्दत के बाद राजीव ने उस पर दिल खोल कर प्यार लुटाया था। थकावट व अनिद्रा की वजह से उसका बिस्तर से उठने को मन नहीं कर रहा था। बहुत समय बाद पति संग व्यतीत की हसीन रात की याद को दिल की गहराई में सुरक्षित रखने के लिए उसने अपना सारा ध्यान उस ओर ही केंद्रित किया हुआ था। मीठे-मीठे सरूर में उसकी पलकें बंद हो रही थीं।
अपने पति की नज़रों में वह न तो सुंदर थी और न ही अक्ल की मालिक। पति के खानदान को वह जायदाद का वारिस भी नहीं दे सकी थी। अपने पति व सास-ससुर की हर ज्यादती को सहने के काबिल तो वह हो चुकी थी, पर जब कभी राजीव उसे तलाक देने की धमकी देता तो उसकी सहनशक्ति जवाब दे जाती। वह घंटों तक रोने के लिए मजबूर हो जाती। अब तो दो रातों के मधुर-मिलन ने उसके सारे शिकवे दूर कर दिए थे।
उठ हरामजादी, सात बज गए। अभी तक बिस्तर पर पड़ी है। झँझोड़कर उठाते हुए राजीव ने उसके हसीन सपनों को भंग कर दिया। पति को अपने पहले रूप में आया देख वह काँप उठी।
उठ, रोज करती थी न मायका, मायका, आज तुझे सदा के लिए मायके भेज देना है।राजीव गरजा।
ये सुबह ही तुम्हें क्या हो गया?…रात को तो…वह बात पूरी न कर सकी। उसका गला भर आया।
वह तेरी इस घर में आखरी रात थी। मैंने सोचा कि जाती बार का फायदा उठा लूँ।एक कमीनी मुस्कान उसके पति के होठों पर चिपकी हुई थी।
पहली बार गुस्से भरी झनझनाहट उसके सारे शरीर में से गुज़र गई। उसे लगा कि सचमुच उसका पति उसके योग्य नहीं है।
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Saturday 17 August 2013

अधिकार



दर्शन जोगा

उसकी नज़र सामने गेट की ओर से लाठी के सहारे गिरती-पड़ती आ रही बुढ़िया पर पड़ी। उसके साथ एक आदमी था जो कभी आगे कभी पीछे देख रहा था। वह जैसे बुढ़िया को जल्दी-जल्दी वोट डालने वाले कमरे में पहुँचने के लिए कह रहा था।
 अपनी बारी आने पर वह कमरे में दाखिल होते ही बोला, यह मेरी माँ है जी, इसकी वोट मैंने डालनी है। इसे दिखता नहीं, शरीर भी ठीक नहीं है।
अम्मा, तू यहां तक भी तो आई है, अपनी वोट खुद ही डाल। अगर कोई अंधा या अपंग हो तो उसकी वोट फार्म भर कर किसी दूसरे से डलवाते हैं।अधिकारी ने कहा।
बेटे, मेरी भी निगाह नहीं हैं, अंदर आकर तो कुछ भी दिखाई नहीं देता। मेरे लड़के को ही दे दे पर्ची।बुढ़िया बोली।
अधिकारी ने अधिक बहस में न पड़ते हुए आवश्यक फार्म भरकर अपने सहायक को वोट-पर्ची जारी करने के लिए कह दिया। बुढ़िया के बाएं हाथ की पहली उंगली पर निशान लगा कर्मचारी ने वोट-पर्ची बुढ़िया के बेटे के हाथ में थमा दी।
लाठी के सहारे कमान-सी बनी बुढ़िया अधिकारी के पास खड़ी हो गई।
जा अम्मा, पास जाकर बेटे को बता दे कि किस निशान पर मोहर लगानी है। यह तेरा अधिकार है।अधिकारी ने कानून की बात की।
बेटे, वह आप ही लगा देगा जहाँ उसकी मर्जी होगी। जब का इनका बाप गुजरा है, दोनों भाई अलग रहते हैं। बेगानों के हाथ चढ़ गए। पिछले साल जब वोटें पड़ी, तब मैं छोटे के पास थी। उस वक्त वह अपनी मर्जी से डाल गया था। अबकी बार इस बड़े के पास हूँ खेतों में। अब यह अपनी मर्जी से डाल लेगा। अब तू आप समझदार है कि वक्त कैसा है। कुएं में पड़े यह कागज की पर्ची, जिधर जी करे जाए। दो वक्त की रोटी मिलती रहे, यही बहुत है। कैसे अधिकार बेटा!बुढ़िया का मन भर आया।
चल, डल गई वोट।कहता हुआ बेटा माँ को बाजू से पकड़ कर कमरे से बाहर ले गया।
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Monday 12 August 2013

मौसमी फल



जगतार सिंह दर्दी



इस बार आषाढ़ चढ़ते ही बारिश शुरू हो गई थी। आज सुबह हुई बारिश ने उमस-सी पैदा कर दी थी। जितनी देर बारिश रही, मौसम सुहावना रहा। बादल चले गए, तो सूरज चमका। सूरज की तपिश और धरती की गर्मायश ने गर्मी दुगनी कर दी थी।
बच्चों के साथ, बाज़ार में वह बहुत मुश्किल में थी। बच्चे जिस भी रेहड़ी के पास से गुज़रते, इच्छा जताते, ‘माँ, यह लेना है!’ उसका दिल पिघल जाता। वह बेबस थी, मजबूर।
करियाने वाले का हिसाब करने के बाद, उसके पास केवल बीस रुपये बचे थे। करियाने वाला और उधार देने में टालमटोल कर रहा था। इसलिए उसने पूरा बिल चुकाना ही ठीक समझा।
बारिश के दिनों में उसके घर की हालत अक्सर और भी पतली हो जाती थी। उसके मज़दूर पति को लगातार दिहाड़ी न मिलती। अब उसे एक सप्ताह लगातार काम मिला था। जब दिहाड़ी नहीं मिलती, तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाता था। दिहाड़ी लगे चाहे न, पेट को तो गाँठ नहीं लगाई जा सकती थी।
साथ चल रही उसकी छः वर्ष की बेटी ने उसकी सलवार खींचते हुए कहा, माँ, ये लेना है!
वह रुकी। उसने देखा कि उसका बेटा भी रेहड़ी के पास रुक गया था। गोद में उठाए बच्चे को ठीक करते हुए उसने रेहड़ी वाले से पूछा, आम क्या भाव हैं?
बीस रुपये किलो।
ये उसके सामर्थ्य से बाहर थे। फिर उसने तरबूज का भाव पूछा। तरबूज सस्ता था, सिर्फ चार रुपये किलो। उसने तरबूज तोलने को कह दिया।
इतने में सुंदर सूट पहने एक औरत रेहड़ी के पास रुकी। उसने आमों पर नज़र डालते हुए भाव पूछा। उस औरत का बेटा रेहड़ी पर पड़े बड़े-बड़े तरबूज देख रहा था। शायद उसे कटा हुआ लाल तरबूज अच्छा लग रहा था। आखिर उसके सब्र का बाँध टूट गया। उसने अपनी माँ की कमीज खींचते हुए कहा, मम्मी, यह लेना है, लाल-लाल!
औरत ने बच्चे को प्यार से डाँटते व समझाते हुए कहा, बेटा, बारिश का मौसम है। इस मौसम में तो तरबूज बीमारी का घर है। यह देख… कितने बढ़िया आम हैं। ये लेंगे, मौसमी फल।
यह सुनकर उसका दिल धड़कने लगा। उसने एक आह भरी।
उसने एक नज़र अपने बच्चों पर डाली और जल्दी से तरबूज को उठाया, जिसे बच्चे बड़ी बेचैनी से देख रहे थे। फिर वह तुरंत वहाँ से चल दी।
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