हरभजन सिंह
खेमकरनी
शहर में रह रहे बेटे के पास
गई मुख्त्यार कौर अकसर आठ-दस दिन बाद वापस गाँव लौट आती। फिर धूल-मिट्टी से भरे घर
की सफाई में लग जाती। वृद्ध शरीर जल्दी ही थक जाता। अड़ोस-पड़ोस में रहने वाली
उसकी देवरानी-जेठानी ने उसे कई बार कहा कि घर की चाबियाँ उन्हें दे जाया करे, वे
घर की सफाई करवा दिया करेंगी। वे कहीं घर पर ही कब्जा न कर लें, इस डर से वह
उन्हें चाबियाँ न देती।
इस बार जाते समय वह
कह गई थी कि अब वह शहर में ही रहेगी। परंतु कुछ दिनों बाद ही लौट आने के कारण वह
चर्चा का विषय बन गई। लोग कह रहे थे— ‘पुत्र-वधु से नहीं बनी
होगी, खान-पान पर टोका-टाकी के चलते दोनों में खटपट हुई होगी।’
रिश्ते में बहू लगती
मनिंदर कौर ने चाय का गिलास मुख्त्यार कौर की ओर बढ़ाते हुए कहा, “ प्रणाम चाची, तुम तो कहती थी कि अब बेटे के पास
ही रहना है, क्या बात बहू ने सेवा नहीं की?”
“नहीं बेटी, ऐसी बात नहीं। बस दिल ही नहीं लगा वहाँ।”
“बैठे-बिठाए सब कुछ मिलता होगा। दिल तो घर के लोगों में लग ही जाता है चाची।”
“ये बात तो तेरी ठीक है। पर क्या बताऊँ, बेटा-बहू सुबह के नौकरी पर गए शाम पाँच-छः
बजे घर लौटते। फिर बच्चों के साथ घूमने निकल जाते। बच्चे भी स्कूल से लौट कर
ट्यूशन पर चले जाते या फिर टी.वी. देखते रहते। रोटी दोनों वक्त नौकर कमरे में दे
जाता। किसी के पास बात करने के लिए समय ही नहीं, बस कभी-कभार कोई कमरे में आकर
खड़े-खड़े ही मिल जाता। अड़ोस-पड़ोस में जाने का हुक्म नहीं, दो घड़ी दुःख फरोले
तो किसके साथ।”
“चाची, शहर में आस-पड़ोस में भी किसी के पास समय नहीं होता कि अपनी तरह बैठ कर
दुःख-सुख सांझा करे। उन्हें तो पता ही नहीं होता कि उनके पड़ोस में रहता कौन है।
“यही सोच कर वापस आ गई हूँ बेटी। यहाँ तो मिलने-जुलने वालों की आवाजाई लगी रहती
है। दिन हँसते-खेलते बीत जाता है। दुःख-सुख में तुम्हारा आसरा है।” मुख्त्यार कौर के मन की पीड़ा उसके चेहरे से
झलक रही थी।
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