Tuesday 28 July 2015

आत्मा सिंह की मौत

सुलक्खन मीत

मक्खन सिंह जिस स्कूल में स्वयं पढ़ा था, वहीं वह अंग्रेजी के लैक्चरर के तौर पर ड्यूटी संभालने जा रहा था। वह सोच रहा था—‘अभी कल ही तो मैं उस स्कूल में पढ़ता था। तब यह केवल हाई स्कूल था। वहाँ के मुख्याध्यापक सरदार आत्मा सिंह बहुत ही परिश्रमी इंसान थे। सभी अध्यापक समय से स्कूल पहुँचते थे, समय से वापस जाते थे। पढ़ाने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी दिलचस्पी लेते थे। हर वर्ष स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या पहले से अधिक होती।
सोच में डूबा वह स्कूल पहुँच गया। उसे ऐसा लग रहा था जैसे स्कूल में अवकाश हो। न ही बाहर, न ही कमरों में कोई रौनक दिखाई देती थी। अवकाश का कोई कारण भी नज़र नहीं आ रहा था।
मक्खन सिंह ने दफ्तर में जाकर अपनी हाज़री-रिपोर्ट दे दी। जब वह स्टाफ-रूम में पहुँचा तो वहाँ का दृश्य बदला हुआ था। वहाँ बैठे लगभग सभी अध्यापक उसके लिए नए थे। पंजाबी का लैक्चरर मग्घर सिंह उस का हमजमाती था। उसने मक्खन सिंह को पहली नज़र में ही पहचान लिया। मक्खन ने देखा, वे सारे मेज के चारों ओर बैठे देसी शराब पी रहे थे। कमरे में रोस्टड मुर्गे की खुशबू फैली थी। मक्खन के चेहरे के हाव-भाव देखते हुए उसे अपने साथ वाली कुर्सी पर बैठाते हुए मग्घर सिंह ने पूछा, मक्खन, फिर कैसा लगा स्कूल?”
मक्खन सिंह ने बेझिझक कहा, मुझे तो ऐसा लगता है दोस्त, जैसे आज आत्मा सिंह मर गया हो।
आत्मा सिंह के समय स्कूल में पढ़े अध्यापकों को उच्छू आ गई।
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Tuesday 21 July 2015

ज़िंदगी




कुलविंदर कौशल

पिछले दिनों मेरी सहेली कमला के पति का निधन हो गया था। व्यस्तता के चलते मुझसे अफसोस प्रकटाने के लिए भी नहीं जाया गया। आज मुश्किल से समय निकाल उसके घर गई थी। कमला मुझे बहुत गर्मजोशी से मिली। मैं तो सोच रही थी कि वह मुरझा गई होगी, पूरी तरह टूट गई होगी। मगर ऐसा बिल्कुल नहीं लगा। उसके पति के बारे में बात करने पर वह चुप-सी हो गई। थोड़ी देर बाद गंभीर आवाज में बोली, मर चुकों के साथ मरा तो नहीं जाता।बच्चों के लिए मुझे साहस तो जुटाना ही होगा।
 हाँ, यह बात तो ठीक है, लेकिन अकेली औरत…” मैंने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि कमला की बच्ची रोती हुई हमारे पास आई।
मम्मा, देखो बबलू ने मेरा घर ढा दिया।
रोते नहीं बेटे, मैं बबलू को मारूँगी। मेरी अच्छी बच्ची घर को फिर से बनाएगी, जाओ बनाओ।
हाँ मम्मा, मैं फिर से घर बनाऊँगी। कहती हुई बच्ची बाहर भाग गई।
क्या कह रही थी तुमअकेली औरत?…मैं अकेली कहाँ हूँ। मेरे दो बच्चे हैं। देखना कुछ दिनों में ही बड़े हो जाएँगे।
हम बहुत देर तक बातें करती रहीं। जब मैं कमला के घर से बाहर निकली तो देखा उसके बच्चे दोबारा घर बनाकर खेल रहे थे।
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Monday 13 July 2015

गऊमाता




अनवंत कौर

राजू शर्मा की ससुराल नदी के पार थी। उस गाँव में अधिकतर घर ब्राह्मणों के थे। गऊ-गरीब की रक्षा करना वे अपना पहला धर्म मानते थे। राजू गाँव के एक सम्मानीय पुरोहित का दामाद था। गाँव में उसकी बहुत इज्जत थी। एक दिन लोगों ने देखा कि राजू कीचड़ में लथपथ एक गाय को हाँक कर नदी से बाहर निकाल रहा है। भीड़ एकत्र हो गई। भीड़ को देखकर साँसों-साँस हुआ राजू बताने लगा
गऊमाता कीचड़ में बुरी तरह फँसी हुई थी। मैने देखा तो मुझसे सहन नहीं हुआ। जान जोखिम में डालकर मैं इसे बचाकर लाया हूँ। अगर मैं न देखता तो इसका बचना कठिन था।
गाँव वाले उसके इस परोपकार को देखकर बहुत खुश हुए। सभी ने उसकी जय-जयकार की। उसके कीचड़ में सने वस्त्रों की परवाह किए बिना लोग उसे गले लगे। जलूस के रूप में राजू को उसकी ससुराल तक लाया गया। उसके कीचड़ में सने वस्त्रों को देखकर उसकी पत्नी बोली, पहले हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लो।
कपड़ों का क्या है? धो कर साफ हो जाएंगे। भगवान की कृपा से गऊमाता की जान बच गई।
पत्नी उसे घर के भीतर ले गई, लावारिस गाय थी। मर जाती तो आसमान नहीं टूट पड़ता। तुम्हें इस मुसीबत में पड़ने की क्या जरूरत थी?”
राजू हँसता हुआ लोटपोट हो गया, फिर बोला, पगली! गऊ को बचाने की कहानी तो गढ़नी पड़ी। असल में मुझे तुम्हारे पास आना था। नदी पर पहुँचा तो देखा वहाँ कोई नाव नहीं थी। नदी में पानी बहुत कम था। कम पानी देख, मैं पैदल ही नदी पार करने लगा। बीच में पहुँचा तो पानी थोड़ा गहरा हो गया, ऊपर से कीचड़ ही कीचड़। मैं कीचड़ में धँसने लगा। न आगे बढ़ पा रहा था, न पीछे मुड़ पा रहा था। तभी मेरी नज़र इस गऊ पर पड़ी। सोचा यह जरूर कीचड़ से बाहर निकाल देगी। सो मैने गऊ की पूँछ पकड़ ली और उसे धकेलता हुआ किनारे तक पहुँच गया। यह गऊ न होती तो मैं तो बीच में ही रह जाता।
पत्नी उसे धुले वस्त्र पकड़ा, जय गऊमाता की!’ कहती हुई बाहर जुटी भीड़ में शामिल हो गई।
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