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Tuesday, 29 October 2013

शरीफां



 सोढी सत्तोवाली

गांव के गली-मुहल्लों और घर-घर में शरीफां चर्चा का विषय बनी हुई थी। गाँव की औरतें एक-दूसरी से फुसफुसा कर उसकी बातें कर रही थीं। शरीफां की बारात गाँव की पश्चिमी पत्ती की धर्मशाला में पहुँची हुई थी। परंतु सुबह से ही सरीफां लापता थी। माँ-बाप के पाँवों के नीचे से ज़मीन खिसक गई थी। सारा गांव अपनी नाक कटी हुई महसूस कर रहा था।
विवाह से एक सप्ताह पहले ही शरीफां ने अपने बाप से साफ-साफ कह दिया था कि वह किसी भी सूरत में दूसरी जगह शादी नहीं करेगी। पर माँ-बाप ने शरीफां की बात सुनी-अनसुनी कर शादी तय कर दी थी।
गाँव की पंचायत लड़के वालों का दिल रखने के लिए कह रही थी, हम बहुत शर्मिंदा हैं। आपको बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। लड़की ने माँ-बाप की ही नहीं, सारे गाँव की इज्ज़त मिट्टी में मिला दी है। आप आज का दिन रुको, हम आपको खाली नहीं भेजेंगे।
चौराहों पर बैठे चटकारे लेने वाले लड़के, शरीफां और रशीद पर बलिहारी जा रहे थे।
एक बोला, कल को चाहे कुछ भी हो, पर यारी इसे ही कहते हैं। एक बार तो निभा निभा कर दिखा दी।
दूसरा बोला, पंचायत वालों ने बारात से क्या दाने लेने है? खाली जाने दें बेरंग। पता चले कि प्यार और जवानी पैसे से नहीं खरीदे जा सकते।
कुएँ पर जा रही युवतियाँ भी शरीफां की बात करके एक-दूसरी के कानों में खुसर-पुसर कर रही थीं।
एक ने कहा, अरी, उसका क्या कसूर? कसूर तो सारा शरीफां के बाप का है, जिसने बेटी को कुएँ में धकेलने की सोची थी।
दूसरी बोली, अच्छा हुआ शरीफां ने दोनों को सबक सिखा दिया। लोग बेटियों को गाएँ समझ, जिसको जी करे उनका रस्सा थमा देते हैं।
गाँव के बड़े लोगों ने कई घर खोजे कि बारात को खाली न भेजा जाए। परंतु गरीब से गरीब घर ने भी पाँवों पर पानी न पड़ने दिया।
सायँ के धुँधलके में बारात सोग जताने वालों की तरह चुपचाप मुँह लटकाए बेइज्ज़त हो वापस लौट रही थी।
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