Wednesday, 16 April 2014
निर्मूल
Saturday, 17 August 2013
अधिकार
Sunday, 6 May 2012
भीतर की बात
Saturday, 27 August 2011
जालों वाली छत
आज फिर ससुर और बहू दोनों दफ्तर पहुँचे। बुजुर्ग बेचारा पहाड़–सी मार का मारा, बड़ी उम्र और कमज़ोर सेहत के कारण दम लेने के लिए कमरे के बाहर पड़े बैंच की ओर हुआ। साँसो–साँस हुए ससुर की दशा देख बहू ने कहा, “आप बैठ जाओ बापूजी, मैं पता करती हूँ।”
कमरे में दाखिल होते ही उसकी निगाह पहले की तरह ही पड़ी तीन–चार मेजों पर गई। जिस मेज पर से वे कई बार आकर मुड़ते रहे थे, उस पर आज सूखे–से बाबू की जगह भरे शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाए बैठी कागज़ों को उलट–पलट रही थी। लड़की को देखकर वह हौसले में हो गई।
“सतिश्री ’काल जी!” उसने वहाँ बैठे सभी का साझा सत्कार किया।
एक–दो ने तो टेढ़ी–सी नज़र से उसकी ओर देखा, पर जवाब किसी ने नहीं दिया। उसी मेज के पास जब वह पहुँची तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ बताओ ?”
“बहनजी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजम था। पिछले दिनों सड़क पर जाते को कोई चीज फेंट मारी। उसके भोग की रस्म पर महकमे वाले कहते थे, जो पैसे–पूसे की मदद सरकार से मिलनी है, वह भी मिलेगी, साथ में उसकी जगह नौकरी भी मिलेगी। पर उस पर निर्भर उसके वारिसों का सर्टीफिकट लाकर दो। पटवारी से लिखाके कागज यहां भेजे हुए हैं जी, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
“क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षेप और रूखी भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछ कागजों को इधर–उधर करते हुए व एक रजिस्टर को खोल लड़की बोली, “कर्मजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“जी हाँ, जी हाँ, यही है।” वह जल्दी से बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास भीतर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से कर्मजीत ने फिर पूछा।
“न...अ..अभी तो अफसर के पास भेजा है, क्या पता वह उस पर क्या लिख कर भेजेगा, फिर उसी तरह कारवाई होगी।”
‘“बहन जी, अंदर जाकर आप करवा दो।”
“अंदर कौनसा तुम्हारे अकेले के कागज हैं, ढे़र लगा पड़ा है। और ऐसे एक–एक कागज के पीछे फिरें तो शाम तक पागल हो जाएँगे।”
“देख लो जी, हम भगवान के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने काँपते स्वर में विलाप–सी मिन्नत की।
“तेरी बात सुन ली मैने, हमारे पास तो ऐसे ही केस आते हैं।”
औरत मन–मन भारी पाँवों को मुश्किल से उठाती, अपने आपको सँभालती दीवार से पीठ लगाए बैंच पर बैठे बुज़ुर्ग ससुर के पास जा खड़ी हुई।
“क्या बना बेटी?” उसे देखते ही ससुर बोला।
“बापूजी, अपना भाग्य इतना ही अच्छा होता तो वह क्यों जाता सिखर दोपहर!”
बुज़ुर्ग को उठने के लिए कह, धुँधली आँखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों की ओर देखती, वह धीरे–धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल पड़ी।
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Saturday, 25 July 2009
कड़वा सच
दर्शन जोगा
“दुलारी, अब नहीं मुझसे बसों में चढ़ा-उतरा जाता। ड्यूटी पर जा कर बैठना भी मुश्किल लगता है। वैसे डाक्टर ने भी राय दी है– भई, आराम कर, ज्यादा चलना फिरना नहीं। बेआरामी से हालत खराब होने का डर है।”
“रब्ब ही बैरी हुआ फिरता है। ’गर लड़का कहीं छोटे-मोटे धंधे में अटक जाता तो किसी न किसी तरह टैम निकालते रहते।” शिवलाल की बात सुन कर पत्नी का दुख बाहर आने लगा।
“मैंने तो रिटायरमैंट के कागज भेज देने हैं, बहुत कर ली नौकरी। अब जब सेहत ही इजाजत नहीं देती…।” शिवलाल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा।
“वह तो ठीक है, पर…” पत्नी ने भीतर का फिक्र ज़ाहिर करते हुए कहा।
“पर-पुर का क्या करें…? मैं तो खुद ही नहीं चाहता था।”
“मैं तो कहती हूँ कि धीरे-धीरे यूँ ही जाते रहो, तीन साल पड़े हैं रिटायरमैंट में। क्या पता अभी क्या बनना है। रब्ब ने अगर हम पर पहाड़ गिरा ही दिया, बाद में नौकरी तो मिल जाएगी लड़के को, बेकार फिरता है…।”
यह सुनते ही शिवलाल के चेहरे पर पीलापन छा गया।
पत्नी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।
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