Thursday 28 April 2011

हवस


हरप्रीत सिंह राणा
वह एक बिगड़ा हुआ अमीर ज़मींदार था। शराब और शबाब उसकी कमज़ोरी थे। उसकी हवेली में अकसर मासूम लड़कियों की सिसकियों की आवाज सुनाई देतीं। कुछ लाचारी में और कुछ जबरदस्ती उसकी हवस का शिकार होतीं। दौलत और राजनीतिक रसूख के कारण कोई भी उस पर उँगली उठाने का साहस नहीं करता।
शाम का समय था। जमींदार अपनी बैठक में शराब पी रहा था। बैठक की एक दीवार पर लगी सुंदर सुस्कराती चेहरे और नशीली नीली आँखों वाली नंगी औरत की तस्वीर लगी थी। तस्वीर को देखकर उसकी आँखों में लाल डोरे तैरने लगे।
अकस्मात लगभग अठारह वर्ष की एक औरत के साथ सेवक ने कमरे में प्रवेश किया। गोरे रंग, काले बाल, हाथों में मेहंदी, बाहों में चूड़ियाँ, माँग में सिंदूर। औरत का चेहरा मासूम और भयभीत था। ज़मींदार का भयानक चेहरा देख औरत भय से सिकुड़-सी गई।
हज़ूर! यह घुल्ले ड्राइवर की घरवाली कमला है। अभी छः महीने पहले ही शादी हुई है। घुल्ले का एक्सीडेंट हो गया। शहर के हस्पताल में मौत से लड़ रहा है। घरवाले के इलाज के लिए पैसे उधार लेने आई है…।सेवक बता रहा था।
ज़मींदार का चेहरा चमक उठा। भूखी नज़रों से कमला को निहारते हुए सेवक को इशारा किया। सेवक ने फुर्ती से बाहर निकल कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया। बंद दरवाजा और ज़मींदार का भयानक रूप देख कमला सूखे पत्ते की तरह काँपने लगी।
घबरा मत, मेरे होते हुए तेरे घरवाले को कुछ नहीं होगा। यह ले पैसे…अपनी जाकिट की जेब से सौ-सौ रुपये के नोटों की गड्डी निकाल ज़मींदार ने पलंग पर फेंक दी। नोट देख कमला की आँखों में लाचारी के आँसू आ गए। वह रुपये उठाने के लिए पलंग की ओर बढ़ी। ज़मींदार ने उसे पीछे से बाहों में जकड़ पलंग पर गिराते हुए कहा, मेरी जान, पहले ब्याज तो चुका दे।
रात भर बेबस सिसकियों की आवाज़ ज़मींदार की गर्म साँसों तले दम तोड़ती रहीं। सुबह नोटों की गड्डी उठा बदहवास कमला अस्पताल जाने के लिए शहर को जाने वाली सड़क की ओर दौड़ पड़ी।
शाम को ज़मींदार फिर बैठक में बैठा शराब पी रहा था। उसका सेवक कमरे में प्रवेश करते हुए बोला, हज़ूर! बहुत बुरी खबर है…घुल्ला ड्राइवर मर गया।
ओए गधे, इस बुरी खबर का मुझ से क्या संबंध! मर गया तो मर गया।ज़मींदार बोला।
हज़ूर! पता लगा है कि घुल्ले को एड्स की बीमारी थी। उसकी घरवाली का भी टैस्ट हुआ, उसे भी एड्स है…। सेवक एक ही साँस में बोल गया।
क्या?ज़मींदार के हाथ से शराब का गिलास फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो गया।
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Wednesday 20 April 2011

बौना


सुरिंदर कैले
तू कितने दिनों से कह रही थी कि मशीन ठीक करवा दो। आज तो जैसे भगवान खुद ही आ गया। यह देख, घर-घर पूछता फिरता मिस्तरी अपने भी आ गया।
डॉक्टर के पीछे एक बुजुर्ग कारीगर धीरे-धीरे साइकिल खींचता हुआ आ रहा था। उसने साइकिल दीवार के साथ खड़ा किया और अपने औजारों वाली संदूकड़ी कैरियर से उतार कर एक ओर बैठ गया।
डॉक्टर साहब! आपके गाँव से दो मरीज आए हैं दवाई लेने और ये भुट्टे लाएँ हैं बच्चों के लिए।कम्पाउडर ने सूचना दी और भुट्टे रसोईघर में रखने चला गया।
डाक्टर का जन्म व पालन-पोषण एक गाँव में हुआ था। पढ़ाई में होशियार होने के कारण, उसके पिता ने उसकी पढ़ाई पर पूरा ज़ोर लगा दिया था, यहाँ तक कि अपना मकान भी रहन रख दिया था। डॉक्टर ने पढ़ाई पूरी कर गाँव में ही दुकान खोल ली थी, पर मरीज कम होने के कारण वह शहर आ गया था। शहर में उसका काम अच्छा चल पड़ा था। उसने न केवल रहन पड़ा मकान ही छुड़वा लिया था बल्कि एक कोठी भी बना ली थी।
बीबी! मशीन तो काफी पुरानी लगती है?मशीन के पुर्जों की जांच करते हुए मिस्तरी ने कहा।
मेरे दहेज की है। इसका कभी-कभार काम पड़ता है, इसलिए पड़ी-पड़ी जाम हो गई।
बीबी! तुम्हारा गाँव कौनसा है?
डॉक्टर साहब का गाँव तो नंदगढ़ है, नंदगढ़ पशौरा। मेरे मायके बेगोवाल हैं।
कौनसा बेगोवाल? दोराहे वाला?
हाँ। मैं नंबरदार चानन सिंह की पोती हूँ।
मेरा गाँव भी बेगोवाल ही है। मेरे पिता नत्थू राम की नंबरदार जी से अच्छी दोस्ती थी।
मैं छोटी-सी थी जब पिता जी स्वर्गवास हो गए थे। मैं ज्यादा ननिहाल में ही रही। इसलिए गाँव के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं।डाक्टरनी ने उसे न पहचान पाने की मजबूरी बताई।
बताने से ही पता चलता है। नहीं तो चाहे कोई पास बैठा रहे, क्या पता लगता है कि कौन है। ले बहन, मशीन तो तेरी ठीक हो गई।मिस्तरी ने पुराने कपड़े से हाथ पोंछते हुए कहा।
कितने पैसे बाबा?डॉक्टरनी ने मोहभरी आवाज में पूछा।
तुम तो मेरे गाँव की हो। मैं बहन से पैसे कैसे ले सकता हूँ।
डॉक्टरनी ने बहुत जोर लगाया, पर मिस्तरी ने मेहनताना लेने से बिल्कुल इनकार कर दिया।
डाक्टरनी ने दवाखाने से वापस आ रहे डॉक्टर को खुशी, सम्मान और अपनत्व भरे मन से कहा,यह देखो जी! बाबा पैसे नहीं लेता। मेरे मायके का है न इसलिए।
यह सुनते ही डॉक्टर को पसीना आ गया। उसके लिए खड़ा रहना मुश्किल हो गया और वह धड़ाम से पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। मिस्तरी के सामने वह अपनेआप को बौना महसूस कर रहा था। बच्चों के लिए भुट्टे लाने वाले अपने गाँव के मरीजों को वह सैंपल वाली दवाइयाँ भी बेच आया था।
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Monday 11 April 2011

तकलीफ

बिक्रमजीत नूर

पत्नी दस-बारह दिन के लिए मायके चली गई थी, समस्या ही कुछ ऐसी आ गई थी। गुरदेव ने अपनी बूढ़ी माँ को गाँव से बुला लिया। वह बच्चों को संभालने के साथ-साथ रसोई का काम भी अच्छी तरह कर लेती थी।

माँ ने सारा काम भी जी-जान लगा कर किया। अपने बूढ़े व बीमार शरीर की कभी परवाह नहीं की। झाड़ू-पोंछे से लेकर बर्तन माँजने तक के सारे काम बिना गरमी की परवाह किए क्षणों में ही निपटाती रही। उसकी बस एक ही चिंता थी बेटे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। यद्यपि उसे दो-तीन बार सख्त सिरदर्द व बुखार हो गया था।

गुरदेव मस्त व बेफिक्र रहा। समय ठीक-से गुजर गया। माँ का बच्चों में मन लगा रहा।

पत्नी वापस आ गई। गुरदेव जैसे उस के लिए बेताब था। पत्नी की अहमियत का पता तो उसकी गैरहाज़िरी में ही लगता है। माँ के घर में होने के बावजूद, जैसे घर में सब कुछ उथल-पुथल सा गया था। गुरदेव स्वयं शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ-सा महसूस कर रहा था।

अब मन में प्यार के साथ-साथ बातों का भी तूफान उठ खड़ा हुआ था। परंतु घर में माँ के होते यह सब कुछ संभव नहीं था। किराए के मकान के भीड़े होने के कारण बड़ी दिक्कत थी।

दो दिन व दो रातें पत्नी से बिना ‘बोल-चाल’ के ही गुजर गईं। तीसरे दिन गुरदेव ने माँ को बड़े प्यार से कहा, माँ, मैं तुझे गाँव ही छोड़ आता हूँ, यहाँ गरमी बहुत है। तुम्हें बहुत तकलीफ हो रही होगी।

गुरदेव ने माँ की ओर देखा, बूढ़े चेहरे पर मस्कान फैल गई थी।

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Sunday 3 April 2011

गरीबमार

प्रीतम बराड़ लंडे

मैले-कुचैले कपड़े। फैली हुई जट्टों वाली पगड़ी। करमा काम करवाने के लिए रोज शहर के दफ्तर जाता और लौट आता था। काम अभी नहीं बना था, न ही उम्मीद थी।

जब वह चक्कर काट-काट कर थक गया, तो उसे एक तरकीब सूझी। बाबू को बीस का नोट पकड़ा कर उसने कहा, लो बाबू, चाय पी लेना, काम की कोई बात नहीं। जब समय मिले कर देना, कोई जल्दी नहीं है।

ऐनक के ऊपर से चूहे की तरह देखता बाबू ‘ही-ही’ करता हुआ बोला, रंडी चाय…एकदम रंडी।

जट्ट ने उदास फसल जैसी साँस लेते हुए कहा, नहीं बाबू! रंडी क्यों, हद हो गई…।उसने बीस का एक और नोट निकाल कर बाबू की मेज पर रख दिया।

बाबू ने हैरान नजरों से करमे की ओर देखा और फिर दोनों शरीफ-से नोट अपनी पैंट की चोर-जेब में ठूँस लिए। फिर उसके हाथ बड़ी फुर्ती से फाइलें उलट-पलट करने लगे, जैसे वर्षों का काम उसने एक ही दिन में निपटाना हो।

कुछ ही देर में कागज़ तैयार कर बाबू ने करमें के हाथ में पकड़ा दिए और कहा, लो सरदार जी, तुम भी क्या याद करोगे! बड़ी माथापच्ची करनी पड़ी है। थक गया हूँ आज तो।

करमे ने कागज़ ज़मीन पर फेंक कर बाबू को कालर से पकड़ लिया। वह ऊँची आवाज़ में बोला, बाबू, तुझे पता है कि सर्दियों की बर्फीली रातों में गेहूँ को पानी कैसे दिया जाता है? डीजल की कमी हो जाने पर काम छोड़कर लाइन में किस तरह नंगे पाँव…?

काँपते हाथों से बाबू जेब से पैसे निकाल कर करमें की जेब में डालकर रिरियाया, जाने दो सरदार जी, क्यों गरीबमार करते हो?

हूँह! गरीबमार!

और करमा रुपये पगड़ी के नीचे संभालता दफतर से बाहर निकल आया। शायद गाँव को जाती आखरी बस मिल ही जाए।

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