Monday 28 January 2013

माँ का कमरा




श्याम सुन्दर अग्रवाल

छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बसंती गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.
बेटा हैरान हुआ, माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!
हां माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना। उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।
                              -0-

Monday 21 January 2013

चुप का दर्द



दर्शन सिंह बरेटा

हाय रे! हमें अकेला छोड़ कर क्यों चला गया, सेवक बेटा…हाय…! हमसे कौनसे युग का बदला लिया रे बेटे…हाय!…हाय!
सेवक का माँ का रुदन रुक नहीं रहा था। थोड़ी सी बात सुनकर ही वह बिलख पड़ती।
सेवक की पत्नी की आँखें पता नहीं क्यों बिल्कुल भी नम न हुईं। वह बस टिकटिकी लगा कर इधर-उधर देखती रहती। वह तो जैसे पत्थर की ही हो गई। रो रहे बच्चों को चुप करवाने के ले ही बस हूँ-हाँ करती। नहीं तो…।
नशेबाज सेवक चढ़ती उम्र में ही भगवान को प्यारा हो गया। उसके भोग की रस्म पर संबंधी एकत्र हुए।
सेवक के माँ-बाप को बच्चों के भविष्य से अधिक बहू की चिंता थी। भरी दोपहरी-सी जवानी की उम्र और उसके लगातार गुमसुम रहने की चिंता कहीं अधिक गंभीर लगती थी।
आए रिश्तेदारों से वे अपनी चिंता प्रकट करते, लेकिन बहू हरिंदर चुपचाप बैठी सुनती रहती। उसने अपने दिल का भेद जरा भी नहीं खोला।
हरिंदर के चाचा ने हिम्मत कर दोनों पक्षों का फ़ैसला बताने को कहना शुरू किया, देख भई हरिंदर! जो हुआ वह तो किसी के बस का नहीं था। वाहेगुरु की करनी माननी ही पड़ती है। सबने सोच-समझ कर फैसला किया है कि तू सेवक के चाचा के लड़के सरदूल के साथ लगकर बच्चे पाल ले। तेरी उम्र को सहारा भी मिल जाएगा। लड़का थोड़ा-बहत नशा करता है…वाहेगुरु की कृपा होगी, आप ही छोड़ देगा। तू पंचायत का फैसला मान ले।
बस-बस, रहम करो…मुझ पर और मेरे बच्चों पर, बस…क्यों मुझे खाई में से निकाल कर कुएँ में धकेल रहे हो। ज़रूरत नहीं मुझे किसी नशेड़ी के सहारे की। आठ-दस साल में हो जाएगा मेरा बेटा गबरू। तब तक मैं अपने सास-ससुर के साथ रह कर दिन काट लूँगी। मुझे मेरे रहम पर छोड़ दो। मैं किसी को परेशान नहीं करती। नहीं किसी की पगड़ी को…।
हरिंदर अपनी बात पूरी न कर पाई। उसका गला भर आया। वह सास के गले लग कर कितनी ही देर तक रोती रही।
अब कोई सवाल बाकी न रहा था।
                         -0-

Sunday 13 January 2013

छूट के पैसे



कर्मजीत सिंह नडाला(डा.)

ओ जिंदी, चल खड़ा हो जा…कल क्यों नहीं आया?
हमारे गाँव में सरदारों की लड़की की शादी थी। उनके बारात आई थी…मैं वहाँ गया था।
साले, तुझे उन्होंने शादी में बुलाया था?कहते हुए अध्यापक ने दो थप्पड़ उसकी गाल पर जड़ दिए।
नहीं जी…।
फिर वहाँ जबरन घुस बर्फी-पकौड़े खाए होंगे…स्कूल आने की क्या जरूरत थी…तुझ जैसों को पढ़ाई की क्या चिंता…नहीं पता कि पढ़ाई का क्या मोल है…।
मास्टर जी!…शादी में खाने की तरफ तो किसी ने जाने ही नहीं दिया…और मैं कोई मिठाई-पकौड़े खाने थोड़ा गया था…।
फिर भूतनी के तू वहाँ आम लेने गया था…करता हूं आज मैं तेरी छित्तर-परेड़…चल कान पकड़।
मास्टर जी, मुझे न मारो…मैं तो कल का ही बहुत थका हुआ हूँ…मुझे तो रात बुखार भी हो गया था…सारी रात नींद भी नहीं आई।
मार के डर से पाखंड करता है…सच-सच बता कहाँ गया था?
जी शादी में छूट चुगने गया था…भूखा-भाना…गिरते पड़ते…पैर कुचलवाते, पैसे चुगता रहा…मुश्किल से पंद्रह रुपये इकट्ठे हुए।कहते हुए जिंदी की आँखों में आँसू आ गए।
अच्छा तो यह कमाई तू मेरे लिए करता रहा!…सुसरे…पंद्रह रुपये के लिए सारा दिन खराब कर दिया…पढ़ाई तेरे बाप ने करनी थी?
मास्टर जी, आप ही ने तो कहा था कि जब तक तू किताब नहीं लाएगा, मैं तुझे क्लास में नहीं आने दूँगा। जी, मेरा बापू मज़दूरी करता है। हमारे पास किताब लाने को पैसे नहीं। मैं छूट के पैसों की किताब ले आया…अब तो आप…।
जिंदी के मुँह पर थप्पड़ मारने को उठा अध्यापक का हाथ हवा में ही उठा रह गया।
                        -0-