कुलविंदर कौशल
वह कई वर्षों बाद गाँव आया था। शाम को घूमता-घुमाता वह चौपाल की तरफचला गया। गाँव की चौपाल के पास कभी उसने बहुत यत्न से गाँव के नौजवान शहीद
का बुत लगवाया था। बुत के चारों ओर चारदीवारी कर फूल-बूटे लगवा दिए थे। शहीद के
बुत को देख, उसे बहुत आघात पहुँचा। पक्षियों ने बीठ कर कर बुत का बुरा हाल कर रखा
था। चारदीवारी के भीतर उगे घास-फूस ने अपना कद बहुत बढ़ा लिया था। बाहर कुछ
बुजुर्ग लोग बैठे ताश खेल रहे थे।
“राम-राम जी!” वह बुजुर्गों के पास पहुँच
कर बोला।
“राम-राम बेटा, कब आया?”
“आज सुबह ही आया था। बाबा जी, आपने गाँव के शहीद की यादगार का बहुत बुरा हाल कर
रखा है…।”
“तुझे पता ही है बेटा, सरकार कहाँ देशभक्त सूरबीरों की कदर करती हैं। सरकार कोई
ग्रांट-ग्रूंट दे तो इसे बैठने लायक बनाएँ।” एक बुजुर्ग ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
“ताऊ जी, क्या हम इतने गए-गुज़रे हैं कि अपने शहीदों की यादगार की देखरेख के
लिए भी सरकार के मुँह की ओर देखें। हम लोग हर वर्ष यज्ञ करवाने पर लाखों खर्च देते
हैं, पर अपने सरमाये की देखभाल के लिए कुछ समय भी नहीं दे सकते। शर्म आती है मुझे
तो…।” कहता हुआ वह आगे बढ़
गया।
सारी रात उसे नींद
नहीं आई। दिन निकलते ही वह कस्सी उठा चौपाल की ओर चल दिया। जब वह वहाँ पहुँचा तो
उसने देखा उससे पहले ही कई बुजुर्ग सफ़ाई के काम में जुटे हुए थे।
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