Sunday 30 October 2011

मुर्ग़ा


प्रीतम बराड़ लंडे

क्यों सरदूल सिंह?
हाँ, साहब जी!
मुझे लगता है इस गाँव में मुर्ग़े बहुत हैं।
बस कुछ मत पूछो साहब जी! आधी रात से ही बाँग देने लग पड़ते हैं। एक से बढ़कर एक, हैं भी सभी देसी।
तुझे कैसे पता लगा कि सब देसी हैं?
साहब जी, देसी व दूसरे मुर्ग़े की बाँग में बहुत फर्क होता है।
वह कैसे?
साहब जी, देसी मुर्ग़े की बाँग लंबी व टंकार वाली होती है और दूसरे मुर्ग़े की दबी-सी जैसे कंठ में ही फंस गई हो।
फिर बनाई है कोई स्कीम, सरदूल सिंह?
साहब जी, स्कीम का क्या है। सारा सामान अपने थाने में पड़ा है। रात को घड़ों में दो-दो किलो गुड़ डाल कर मुर्ग़े वालों के खेतों में रख देंगे, परसों को छापा मारेंगे। आज जिन मुर्ग़ों की बाँग अपने कानों में पड़ रही हैं, परसों को वे मुर्ग़े अपने पेट में पड़ जाएँगे।
बड़े साहिब ताली बजा कर ज़ोर से हँसे। फिर हवलदार सरदूल सिंह के कंधे पर हाथ रखकर बोले, मेरे साथ रहेगा तो फीतियों की कमी नहीं रहेगी, सरदूल सिंह।
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Monday 24 October 2011

संतुष्टि


सुखवंत सिंह मरवाहा

वृक्ष की छाँव में लेट कर खरबूजे बेच रहे बुजुर्ग को एक राहगीर ने पूछा, खरबूजे क्या भाव हैं?
बुजुर्ग ने लेटे-लेटे ही उत्तर दिया, पचास पैसे का एक है, कोई ले लो।
राहगीर बहुत हैरान हुआ। उसने बुजुर्ग से कहा, आपको एक सलाह दूँ…आप खरबूजे बैठ कर बेचा करो।
बुजुर्ग ने पूछा, बैठकर खरबूजे बेचने से क्या होगा?
राहगीर बोला, बैठकर ध्यान से खरबूजे बेचोगे तो इनमें से कुछ एक रुपये के और कुछ तो इससे भी अधिक में बिक सकते हैं। इससे आप अधिक पैसे कमा सकते हो और यहाँ एक पक्की दुकान बना सकते हो।
बात तो आपकी ठीक है, पर दुकान में मैं क्या करूँगा?
दुकान में बैठकर आप आराम से खरबूजे बेच सकोगे।
बुजुर्ग कुछ देर राहगीर के चेहरे को देखता रहा और फिर बोला, फिर आराम कहाँ रहेगा! आराम से तो मैं अब खरबूजे बेच रहा हूँ।
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Monday 17 October 2011

बस-पास


जंग बहादर सिंह घुम्मन

जी.टी. रोड पर अमृतसर से जालंधर जा रही रोडवेज की बस लगभग खाली ही थी। एक अड्डे से चढ़े पाँच बावर्दी पुलिस के सिपाही अगले अड्डे पर उतर गए थे। सारा दिन ड्यूटी करने के पश्चात, घर लौट रहे दो हरे थैले वाले’(रोडवेज कर्मचारी) मुलाज़िम पिछली सीटों पर बैठे ऊँघ रहे थे।
दुखी कर छोड़ा है यार, इन मुफ्तखोरों ने।कंडक्टर ने एक नंबर सीट पर बैठते हुए ड्राइवर से गुस्से व व्यंग्य के लहज़े में कहा।
कुछ बचा आज की बोतल के लिए कि नहीं?ड्राइवर ने हँसते हुए पूछा।
नहीं यार! दो बार तो इंस्पैक्टर ही आ गया। दो सौ रुपये ले गया। मैं तो डरता ही रहा आज।
तीन सवारियाँ उठीं। उनका अड्डा आ गया था। सामने देखा तो अड्डे पर लगभग पैंसठ वर्ष की एक औरत खड़ी थी। चिंतित लग रही वृद्धा ने दोनों हाथ खड़े करके बस रोकने की विनती की। उसकी घबराहट, उसके बस रोकने के ढंग से साफ झलकती थी।
दफा कर, पास होगा इसके पास। सवारियाँ थोड़ा आगे करके उतार दे।कंडक्टर ने ड्राइवर को सलाह दी।
बस रुकते-रुकते अड्डे से कोई पचास मीटर आगे निकल गई। बस में खड़ी सवारियाँ धीरे-धीरे आगे बढ़ीं। वृद्धा ने बस रुकते देख कमज़ोर-सी दोड़ लगाई। अभी पहली सवारी ही उतरी थी कि साँस फुलाए वह उतर रही सवारियों के आगे आ गई। पर इससे पहले कि वह चढ़ने के लिए पाँव सीढ़ी पर रखती, कंडक्टर ने खटाक से दरवाजा बंद कर लिया।
बेटा, मेरे मायके में मर्ग हो गई, मेरा पहुँचना बहुत जरूरी है।उसने मिन्नत की।
नहीं माई, सीट नहीं है।कहकर कंडक्टर ने कुंडी लगा ली।
वृद्धा बस के साथ चली, थोड़ी दौड़ी भी।
बेटे, मेरे पास पैसे हैं। खोल दे दरवाजा।
पर नहीं, बस बंद रही। वृद्धा बस को धुँधली नज़रों से ओझल होते देखती रही।
सूरज छिप चुका था। अँधेरा पसर रहा था।
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Tuesday 11 October 2011

जिंदा लोग


हरभजन सिंह (डॉ.)

सड़क पर ज्यों ही मैंने अपना स्कूटर दाहिनी ओर मोड़ा तो सामने से आ रहे साइकिल सवार के संतुलन बिगड़ जाने से वह गिर पड़ा। इतने में मैं मोड़ काट चुका था। मैंने पीछे मुड़कर देखा, वह उठ रहा था। मैंने देखा, उसका एक बाजु नहीं था। सोचा, उतर कर पता कर लूँ, पर न जाने किस जल्दी के कारण मैं रुक न सका।
रात को जब खाना खाने लगा तो रोटी गले से नीचे ही न उतरे। मन बार-बार कोसे कि तूने उतर कर उसकी मदद क्यों नहीं की, क्षमा क्यों नहीं माँगी। इन्हीं सोचों में रात गुज़र गई।
अगले दिन मैंने स्कूटर उठाया और उसी चौक में पहुँच गया। वहाँ एक रोहड़ी वाले से कहा कि कल जो व्यक्ति साइकिल से गिरा था, उसके बारे में बताए।
रेहड़ी वाले ने बताया कि वह तो एक बाँह वाला तेजू है। फैक्टरी में काम करता है और रोज शाम को वहाँ से गुज़रता है।
मैं शाम को वहाँ जाकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, तेजू एक हाथ से धीरे-धीरे साइकिल चलाता हुआ आ रहा था। पास आने पर मैंने उसे रोक लिया और कहा, भाई साहब, मैं वही आदमी हूँ जिसकी वजह से कल आप यहाँ गिर पड़े थे। मैं आपसे माफी…।इतना कह मैंने उसे बाँहों में ले लिया।
वह हँस पड़ा, भाई सा'ब! हम तो रोज ही कई ठोकरें खाते हैं, यह कौनसी बड़ी बात हो गई। मुझे तो कल वाली बात बिल्कुल ही भूल गई थी।
इतना कह उसने एक हाथ से मेरी पीठ थपथपाई। उसकी थपथपाहट में मेरी दोनों बाँहों से कहीं अधिक ताकत थी। मुझे लगा, जैसे उसकी दृढ़ता के सामने मेरी दोनों बाँहें ढ़ीली हैं।
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