Thursday 29 July 2010

सैलाब




गुरबचन
सिंह भुल्लर




बेटा, अगर अभी लौटना है तो बलबीर कौर को गाड़ी पर चढ़ा देना, नहीं तो हम में से किसी को काम छोड़कर जाना पड़ेगा।
लौटना तो अभी है, पर बलबीर कौर कौन?” मैंने पूछा।
अब भूल गया?…जिसको कहता था, पकड़ो रे, जट्टी भाग गईमौसी हँस पड़ी।
छोटे-छोटे थे। मेरी साथिन यह लड़की, अपनी बहन, मेरी मौसी की बहू के पास आई हुई थी। एक दिन खेलते हुए मैं जट्ट बन गया, वह जट्टी। पता नहीं वह किस बात पर रूठ गई और खेल बीच में छोड़ भाग गई। मुझे गुस्सा आया कि उसने खेल पूरा क्यों नहीं किया। मैं, ‘जाने नहीं दूँगा, पकड़ो रे, जट्टी भाग गईजट्टी भाग गई…’ कहता उसके पीछे भागा। हमारे घरों में काफी हँसी-मज़ाक हुआ।
मैंने कहा, “कौन सी बलबीर कौर, बीरां नहीं कहते।मौसी की बात के जवाब में मैं हँस पड़ा।
अब तो भई सुख से ब्याही गई, बलबीर कौर बन गई।
तेरी भाभी ने तो मुझ पर इतना ज़ोर डाला रिश्ते के लिए, पर तूने तो छोरे जमीन पर पाँव ही लगाया।
रस्मी हालचाल पूछ मैं, बीरां और उसका दस साल का भाई ताँगे में आगे बैठ गए।
रास्ते में ताँगा रुका। बीरां का भाई पिछली सवारियां नल से पानी पीने लगीं। ताँगे वाला घोड़े के लिए बाल्टी में पानी लेने चला गया। मैं बाहर शीशम के पेड़ देखने लगा। बीरां धीमी आवाज में बोली, “तब तो कहता था जट्टी को जाने नहीं देना। जट्टा, तू तो खुद ही भाग गयामैंने बहन के हाथ संदेशा भिजवाया था, बात तो सुन लेनी थीमैं तेरे पाँव धो-धोकर पीती
मुझे कोई जवाब सूझा। अगर बोलता, तो बोलता भी क्या? मैंने सूनी-सूनी नज़रों से देखा, उसकी आँखों के घेरे में सैलाब उतर आया था। उसके माथे पर थकावट और ज्यादा नज़र रही थी।
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Wednesday 21 July 2010

विकास


जसबीर बेदर्द लंगेरी


माँ, मैं जाटों के घर लस्सी लेने गई थी। उनका बीरू कह रहा था कि हमारे देश ने बहुत तरक्की कर ली है। जो रेलगाड़ी हमारे गाँव से गुजरती है, वह अब कोयले से नहीं तेल से चलेगी। और यह भी कह रहा था कि बिजली से भी गाड़ियाँ चल पड़ीं। लड़की बिंदू ने यह खबर बड़ी खुश होकर अपनी माँ को सुनाई।

खाक तरक्की की है देश ने! जट्ट तो पहले ही खेत में घुसने नहीं देते, चार कोयले उठा कर चूल्हा गर्म कर लेते थे। अब पता नहीं कहाँ-कहाँ हाथ छिलवाने पड़ेंगे काँटों से।चूल्हे को गर्म रखने की फिक्र में ये बोल चिन्ती के मुँह से खुद-ब-खुद निकल गए।

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Monday 12 July 2010

सेवक


गुरदीप सिंह पुरी

मैं फिरोज़पुर शहर के एक चौराहे के कोने में बनी मुसलमान फ़कीर की मज़ार पर माथा टेकने गया। सुना था कि यहाँ सच्चे मन से जो कोई भी आता है, उसकी सब मुरादें पूरी हो जाती हैं। मैंने पाँच रुपये का प्रसाद लिया और माथा टेककर सेवा कर रहे मिजावर को पकड़ा दिया। मैं प्रसाद लेकर अभी मुश्किल से पाँच-छः कदम ही बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ा था कि मज़ार की सफाई कर रहे एक सेवक ने मुझे रोक लिया।
सरदार जी मेरी विनती सुनकर जाना।
बता भाई?”
मैं यहाँ पिछले आठ साल से सेवा कर रहा हूँ। मेरी घरवाली की दाईं छाती में कैंसर है। बहुत इलाज करवाया सरदार जी, पर आराम नहीं आया। अब डॉक्टर कहते हैं कि चंडीगढ ले जाओ। ले तो जाएँ सरदार जी, पर मेरे पास तो इस मज़ार पर माथा टेकने को पाँच पैसे भी नहीं हैं। आप ही कोई हीला-वसीला करो सरदार जीआपके बच्चे जीएं
वह बोलता गया। मैं मज़ार पर श्रद्धा से आने पूरी होने वाली मुरादों तथा आठ साल से सेवा कर रहे सेवक की भावनाओं उसके माँगने के ढंग के बीच के अंतर को टटोलता पता नहीं कब मज़ार का बाहर वाला दरवाजा पार कर गया था।
मुझे बाहर जाता देख वह मज़ार के फर्श पर फिर से झाड़ू लगाने लग गया।
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Sunday 4 July 2010

ताँगेवाला


गुरमेल मडाहड़


सवारियों से भरा ताँगा चढ़ाई चढ़ रहा था। घोड़ा पूरा जोर लगाकर ताँगा खींच रहा था। ताँगे की बम्बी से ताँगेवाला नीचे उतरा । उसने सवारियों को भार आगे करके बैठने का इशारा किया। चाबुक की मार और मालिक की हल्लाशेरी से घोड़े ने अपना बाकी का जोर भी ताँगा खींचने में लगा दिया। ताँगेवाला ताँगे के साथ-साथ चलने लगा।

घोड़े की टाँग खराब है?घोड़े को लंगड़ाते देख एक सवारी ने आगे झुकते हुए पूछा।

हाँ।

फिर आराम करवाना था इसे।

डेढ़ माह के बाद आज ही जोता है।

सवारियाँ कम बैठा लिया कर।

कम कैसे बैठा लिया करूँ? आठ रुपए किलो के हिसाब से दो किलो चने। चार रुपए का दस किलो चारा। चार रुपए का दस किलो भूसा और पाँच रुपए का मसाला। उनतीस-तीस रुपए घोड़े को चराकर, दस रुपए मुझे भी घर का खर्च चलाने को चाहिएँ।

वह तो ठीक है, पर शास्त्रों में लिखा है कि जो व्यक्ति किसी को इस जन्म में तंग करता है, उसका बदला उसे अगले जन्म में देना पड़ता है।सवारी बोली।

पहले इस जन्म के बारे में सोच लें, अगले जन्म की अगले जन्म में देखी जाएगी।कहकर ताँगेवाले ने घोड़े को चाबुक मार दिया।

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