Monday, 1 June 2015

कंधा



जसबीर ढंड

एंबूलैंस में से उतार कर पापा की मृतक देह घर के दालान में रख दी गई है। रोना-पीटना मचा हुआ है।
माँ और हम चार बहनों को रिश्तेदार औरतें चुप करवाने का प्रयास कर रही हैं। सबसे पहले मैं, जो सब बहनों में से छोटी हूँ, चुप कर जाती हूँ।
अपने आँसू पोंछ कर माँ व तीनों बड़ी बहनों को चुप करवाती हूँ।
पता नहीं क्यों, मैं शुरू से ही परिवार से हटकर हूँ। जब मैंने होश संभाला तो पापा को शराब पीकर माँ को मारते देखा। बड़ी बहनें तो दूर शहरों के छात्रावासों में रहती थीं। वे तो कभी-कभार ही घर आती थीं। मैं ही माँ को चुप करवाती थी।
एक दिन पापा लड़कर घर से बाहर चले गए। उस दिन माँ ने मुझे बताया– ‘जब तेरा जन्म हुआ था, तब तेरे पापा साल भर मुझसे बोले नहीं थे। उन्होंने तुझे कभी गोद में भी नहीं उठाया था।’
भला माँ का या मेरा इसमें क्या दोष था?
मेरे मन में एक गाँठ-सी बंध गई थी उस दिन।
             मुझसे चार साल बाद जब मेरे भाई का जन्म हुआ था तो घर में कैसे जश्न मनाया गया था। कितने ही दिन तक पापा ने शराब का लंगर लगा के रखा था। हर ऐरे-ग़ैरे को पकड़ कर बैठक में बिठा लेते। शराब की पेटी बिस्तर के नीचे पड़ी रहती। ‘खूब पी यार! इस घर का वारिस पैदा हुआ है। हमारी अरथी को कंधा देने वाला आ गया! चीयर्ज़!’ और वे शराब से भरे काँच के गिलास टकराते।
लेकिन भगवान के घर का उस वक्त क्या पता था। लाड़-प्यार में पले बेटे ने नकल के सहारे मुश्किल से दसवीं की परीक्षा पास की। कभी माँ-बाप की हथेली पर अपनी कमाई का एक पैसा भी लाकर नहीं रखा। नशे में धुत्त किसी न किसी से लड़ाई मोल ले लेता।
हम सभी बहनें, अच्छी पढ़ाई कर, अच्छी पोस्टों पर लग गईं। अच्छे घर ब्याही गईं।
आज कहाँ है वह कुल का वारिस? बाप की अर्थी को कंधा देने से पहले ही पल्ला छुड़ा कर चला गया अगले जहान।
माँ का विलाप सहन नहीं हो रहा।
आज कौन तेरी अरथी को कंधा देगा, मेरे सिर के साईं?…किसके सहारे छोड़ चला रे मुझे ब्याह कर लाने वाले…!
माँ का विलाप धीरे-धीरे सिसकियों में बदल जाता है।
हम चारों बहनों ने अरथी को चारों ओर से कंधा देकर उठा लिया है।
लोगों में बड़े ज़ोर से खुसुर-फुसुर शुरू हो गई है।
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