Monday 23 September 2013

बूढ़ी भिखारिन



गुरदीप सिंह पुरी

बेटा, सुबह का कुछ नहीं खाया। भगवान के नाम पर रोटी दे-दे। भगवान तुझे लंबी उम्र दे। तेरी कुल ऊँची हो। तेरा आँगन खुशियों से भरा रहे।बूढ़ी भिखारिन ने दफ्तर के लॉन में बैठे बाबू को रोटी वाला डिब्बा खोलते देख मिन्नत की।
बाबू ने डिब्बा खोला तो उसमें सदा की तरह तीन रोटियाँ ही थीं। उनसे बाबू का पेट ही मुश्किल से भरता था।
बाबू ने थोड़ी सी सब्जी रखकर दो रोटियाँ बूढ़ी भिखारिन की ओर बढ़ा दीं।
बूढ़ी के थिरकते होठों से बस यही निकला, बेटा, रोटियां तो तीन ही हैं। तुम खा लो, मेरा क्या है…मैं तो कहीं और से माँग लूँगी। तुम भूखे रह गए तो…।
बूढ़िया लाठी टेकते आगे बढ़ गई। बाबू बहुत देर तक अपने आँसू रोकने का प्रयास करता रहा।
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Monday 16 September 2013

एहसास



प्रीत नीतपुर

अपने बच्चे को उँगली संग लगा, मैं बाज़ार में दाखिल हुआ तो उसने फरमाइशों की झड़ी लगा दी। कहे, डैडी, यह लेना…डैडी, वह लेना…।मैं लारे-लप्पे लगा, बच्चे को चुप कराने की कोशिश करता रहा।
मुझे पता था कि मेरी जेब का सामर्थ्य, बच्चे को एक रुपये की ‘चीजी’ दिलाने से अधिक नहीं था।
पर बच्चा कहाँ जानता था!
डैडी, वह लेना है…।
वह क्या?…फुटबाल?
हाँ।
नहीं बेटे, छोटे बच्चे फुटबाल से नहीं खेलते…।
डैडी, मैंने तो वह लेनी है, साइकिली…।
ले, अब तू कौनसा छोटा है, साइकिली तो छोटे बच्चे चलाते होते हैं…।
मैं बच्चे को ऐसे खींचे लेजा रहा था जैसे कसाई बकरी को। पर संगीन पर टँगा मेरा दिल बुरी तरह तड़प रहा था। वाह री मजबूरी!
डैडी, वह लेना…।
वह क्या?
डैडी, वह…।बच्चे ने उँगली से सामने इशारा किया, वह पिस्तौल…।
नहीं बेटे, पिस्तौल से नहीं खेलते, पुलिसवाले पकड़ लेते हैं।अब तक मेरी बेबसी झुँझलाकर गुस्से का रूप धारण कर चुकी थी।
डैडी, वह…।शेष शब्द बच्चे के मुख से निकलने से पहले ही थप्पड़ की चपेट में आकर दम तोड़ चुके थे।
बच्चे की मासूम आँखों से बहते आँसुओं में मुझे अपना बचपन दिखाई दिया। आज मुझे पता चला कि भरे बाज़ार मेरा बापू मुझे थप्पड़ क्यों मारता होता था।
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Wednesday 11 September 2013

स्पैशल डिश



निर्मल कौर संधू

कृष्णा अपने काम पर जल्दी ही आ गई थी। उसे देख सुमन मुस्करा पड़ी और बोली, शुक्र है, आज तू समय पर आ गई, बरतन माँजने।
कृष्णा ने हँस कर कहा, आज मेरा आदमी बोलाचल तुझे रिक्शे पर छोड़ आऊँ। फिर स्टेशन जाऊँगा, सवारी लेने।
सुमन ने हैरान होते हुए कहा, अभी कल तो तू रो रही थी कि तेरे घरवाले ने बड़ी लड़ाई की। आज सुलह भी हो गई?
कृष्णा हँस कर कहने लगी, आदमी-लुगाई की लड़ाई तो पानी के बुलबुले जितने टैम ही रहती है। हम दोनों तो भूल जाते हैं, एक-दूसरे को क्या कहा था। फिर राजी हो जाते हैं। फिर पहले से ज्यादा प्यार होता है। आप ही देखो न बीबी जी, रोज मैं पैदल चल के आती थी, आज मेरे को रिक्शे पे छोड़ के गया। चाहे आज का दिन ही सही।
सुमन अपने पति सुनील से कई दिनों से खफ़ा थी। किसी बात से दोनों चार दिन से नहीं बोल रहे थे। सुमन ने महसूस किया कि यूँ ही जरा-सी बात पर, इतने दिनों से नहीं बोल रहे। कृष्णा अनपढ़ है, फिर भी कितनी समझदारी की बात कर रही है।
अब उससे रहा नहीं गया। सुनील के दफ्तर फोन कर उसने कहा, सुनील! आई एम सॉरी, वैरी सॉरी!
उधर से सुनील की मीठी आवाज़ सुनकर सुमन के मुँह पर लालिमा आ गई थी। वह सोच रही थी कि सुनील के लिए आज क्या स्पैशल डिश बनाए।
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Wednesday 4 September 2013

अपने हिस्से का दुःख



नूर संतोखपुरी

रात काफी बीत चुकी थी। गरीब बंते के परिवार के सभी सदस्य आपस में बातें कर रात गुजार रहे थे। गाँव की गलियों में आवारा कुत्ते भौंक-भौंक कर जैसे सोए हुए गाँव को जगाने की कोशिश कर रहे थे। ऐसा कर वे शायद बंते के दुःख में शामिल हो रहे थे।
जब नंबरदारों का बूढ़ा मरा, उस समय बहुत-से औरत-मर्द इकट्ठे हुए थे। उन के घर तिल रखने तक को जगह नहीं थी बची। संस्कार से पहले भी काफी लोग उन के घर रुके रहे थे। मैं भी वहीं थी।बंते की पत्नी ने कहा।
बड़े सरदारों की माँ की अर्थी ले जाने के वक्त कितने लोग थे! गाँव से लेकर श्मशान तक लोग ही लोग थे, जैसे लोगों की बाढ़ आ गई हो। और देख लो, हम अकेले बैठे हैं।बंते ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
सरपंच रेशम सिंह का बड़ा भाई जब हार्ट अटैक से मरा था, तब भी अपने गाँव में मेला-सा लग गया था।बंते का अठारह वर्षीय बड़ा बेटा जगतार बोला।
सोलह वर्षीय छोटा लड़का सोनू, कुछ खास नहीं बोल रहा था। वह कच्चे फर्श पर पड़ी अपने दादा चरने की लाश की ओर लगातार देखे जा रहा था। परिवार के बाकी सदस्यों की तरह रो-रोकर उसकी आँखों में से भी जैसे पानी सूख गया था।
कुछ दिन बीमार रहने के बाद, शाम साढ़े-सात बजे चरना प्राण त्याग गया था। बंते व परिवार का रुदन सुन कर कुछ लोग छोड़ी देर के लिए उनके पास आ बैठे थे। फिर सब अपने-अपने घरों को चले गए थे। चरने का संस्कार अब रात को तो हो नहीं सकता था, इसलिए परिवार अकेला बैठा दिन चढ़ने की प्रतीक्षा कर रहा था।
गाँव के कुत्ते बंते के घर के बाहर भौंकने से नहीं हट रहे थे। उन्हें अपने हिस्से की रोटी तक खिला देने वाला चरना, अब नहीं रहा था। शायद इसीलिए वे रोने जैसी आवाज़ में भौंक-भौंक कर अपने हिस्से का दुःख प्रकट कर रहे थे।
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