Saturday 27 February 2010

बेबसी


डॉ. हरभजन सिंह


नंगे पाँव, फटे-पुराने वस्त्र व माटी से सना वह मासूम बच्चा कूड़े के ढेर में से कागज बीन रहा था। कागज बीनते-बीनते उसके हाथ एक पुरानी पुस्तक लग गई। वह वहीं बैठकर पुस्तक के पन्ने पलटने लगा। पुस्तक में छपे अक्षरों की तो उसे कुछ समझ न आई, लेकिन तस्वीरें देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गई। फिर उसका ध्यान नये वस्त्र पहने, सुंदर बस्ते उठाए स्कूल जाते बच्चों की ओर चला गया।

काश! मैं भी स्कूल जा पाता! खूब पढ़ता-लिखता, खेलता…! वह सोचने लगा। थोड़ी दूर पर कागज बीन रही उसकी बारह-तेरह साल की बहन सब देख रही थी। पैबंद लगे वस्त्रों में लिपटी इस मरियल-सी लड़की को अपने छोटे भाई की मासूमियत पर तरस आ गया। लड़की ने उसके पास जाकर उसके कंधे को झकझोरते हुए कहा, उठ भाई, बापू ने देख लिया तो गुस्सा होगा।

लड़के ने घबराकर पुस्तक बोरी में डाल ली और जल्दी-जल्दी कागज बीनने लगा।

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Monday 15 February 2010

छोटे-छोटे ईसा


जसबीर ढंड

“शिंदर, तू कल क्यों नहीं आई?”
“जी, कल मेरी माँ बहुत बीमार थी।”
“क्यों क्या हुआ तेरी माँ को?”
“जी, उसकी न बगल के नीचे की नस भरती है। कल मानसा दिखाने जाना था।”
“दिखा आए फिर?”
“नहीं जी।”
“क्यों?”
“जी, कल पैसे नहीं मिले।”
“फिर?”
“जी, आज लेकर जाएगा मेरा बापू…।”
“आज कहाँ से आ गए पैसे?”
“जी, जमींदारों के से लाया है उधारे…।”
पहली कक्षा में पढ़ रही शिंदर अपने अध्यापक से सयानों की तरह बातें करती। सांवला रंग, मगर सुंदर नैन-नक्श। अपनी उमर के बच्चों से समझदारी में दो-तीन वर्ष बड़ी। उसकी माँ ने स्वयं तंगी भोग शिंदर को स्कूल बैठाया ताकि चार अक्षर सीख जाए।
अगले दिन वह एक घंटा देर से स्कूल पहुँची।
“लेट हो गई आज?” अध्यापक ने पूछा।
“जी, माँ आज फिर ज्यादा तकलीफ में थी…रोटियाँ पका कर आई हूँ…और पहले सारा घर संभाला…।”
अध्यापक उसके मुख की ओर देखता रहा, “तू रोटियाँ पका लेती है?”
“हाँ जी! सब्जी भी बना लेती हूँ…मेरी माँ लेटी-लेटी बताती रहती है, मैं बनाती रहती हूँ…।” लड़की के चेहरे से आत्मविश्वास झलक रहा था।
“आज तेरी माँ ने तुझे घर रहने को नहीं कहा?”
“न जी!…आज तो माँ मेरे बापू को कह रही थी–अगर मैं मर गई तो शिंदर को पढ़ने से न हटाना।”
कक्षा में चालीस-पचास बच्चों के बावजूद अध्यापक के भीतर एक खामोशी छा गई। सुन्न-सा हुआ वह लड़की की ओर देखता रहा…कितने ही छोटे-छोटे ईसा सूली पर लटक रहे हैं।
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Saturday 6 February 2010

पलाल का सेंक





कारखाने की भट्टियों को चलाने के लिए पलाल जलाया जाता था। जब से यह शराब का कारखाना लगा, तब से ही भंता अपनी भैंसा गाड़ी में पलाल ढो रहा था। सारे सीजन में मुश्किल से पाँच-सात हजार ही बनते। बहुत जोर मारता, लेकिन भैंसे और गाड़ी ने तो अपनी ही चाल चलना था। घर में सौ खर्चे थे।
अड़ोस-पड़ोस के ट्रैक्टरों वाले, फेरे लगा-लगा के मालामाल हो गये थे। यह सब देख भंते को अपना-आप खेत में खड़े बिजूके जैसा लगने लगता और भैंसे की रफ्तार बढ़ाने के लिए वह अंधाधुंध सांटा चलाता।
उसके साथ मिट्टी हुई पत्नी को कभी ढंग का वस्त्र नसीब नहीं हुआ था। लेकिन जब ट्रैक्टर खरीदने की बात हुई तो उसने सारे गहने सामने लाकर रख दिए और बोली, ये मेरे किस काम के हैं।
बेटे को कमाई करने के लिए दुबई भेजने की चाह को वह हर बार अगले सीजन पर टाल देता। घरवाली के जेवर व थोड़ी-सी जमीन गिरवी रख, पैसे बैंक में जमा करवा, वह कर्जा लेकर ट्रैक्टर ले आया। ट्रैक्टर खरीदने के बाद उसने मन बना लिया कि जवान बेटी की शादी, घर और पत्नी की शक्लसूरत संवारने के लिए वह डट कर मेहनत करेगा तथा सभी धोने धो देगा।
धान की कटाई से पहले ही उसने लोगों से बात कर ली थी। बेटा भी इस बार रीझ पूरी होते देख पिता के कंधे से कंधा मिला कर काम करने को तैयार था। इस बार भाव भी ज्यादा निकला था। वह मन ही मन खुश था कि बैंक की किश्तें समय से चुका देगा।
धान की कटाई शुरु हो चुकी थी। पलाल की पहली ट्राली लादकर वह खुशी-खुशी कारखाने के दरवाजे तर पहुँचा तो गेटकीपर ने सहज ही कहा, इस बार पलाल की जरूरत नहीं।
क्यों?
सरकार ने प्रदूषण रोकने के लिए बिजली से चलने वाले बायलर लगवा दिए हैं…।
हैं! भंते को ऐसा लगा जैसे वह कारखाने की भट्टी के सेंक से पूरे का पूरा जल गया हो।
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