Sunday 27 November 2011

बुजुर्ग


                      
रशीद अब्बास

आषाढ़ के महीने हैदर शेख की जेठी चौकी के कारण बाज़ार में भीड़ थी। ठेले ऊपर सरिया लादे एक मज़दूर आ रहा था। वह ठेले को भीड़ से बचाता रहा था। जब वह सड़क किनारे खड़े एक मोटर-साइकिल के पास से निकालने लगा तो ठेले पर लदा सरिया मोटर-साइकिल से रगड़ खाने लगा।
देखना बुजुर्गो! कहीं नुकसान ही न कर देना… एक तरफ कर निकाल लो। सरिया भी तो सारे शहर का लाद रखा है…।मोटर-साइकिल की चिंता में खरीदारी बीच में ही छोड़, मास्टर मिंदर सिंह शौरूम में से फुर्ती से बाहर आते हुए बोला।
सासरी 'काल, मास्टर जी!मज़दूर ने नम्रता-पूर्वक हाथ जोड़ कर कहा।
सति श्री अकाल! बुज़ुर्गो, तुमने इतना सरिया क्यों लाद लिया? अपनी उम्र का तो ख़याल किया करो…।मज़दूर की सफेद दाढ़ी और ख़स्ता सेहत को देखते हुए मास्टर जी ने अपनी डॉई की हुई दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए कहा।
मास्टर जी… आपने शायद मुझे पहचाना नहीं… तभी मुझे बार-बार बुज़ुर्ग कह रहे हैं… मैं बंता हूं… आपका शागिर्द…रुड़की गाँव की दलित-बस्ती वाला…।अँगोछे से पसीना पोंछते हुए मज़दूर ने कहा।
भीड़ के कारण बंता ठेला धकेलता आगे निकल गया और मास्टर जी बेसुध खड़े पंद्रह-बीस वर्ष पहले के उन दिनों बारे में सोचने लगे जब बंता दसवीं कक्षा का होनहार विद्यार्थी था।
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Sunday 20 November 2011

बेगानी बेटी


बलवंत कौर चाँद
शरनी के विवाह को यद्यपि बारह वर्ष हो गए थे, परंतु अभी तक उसे अपने पति के वेतन का ही पता नहीं लगा था।
वेतन वाले दिन बेबे दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती और गुरदयाल भी वेतन माँ को थमा कर ही अपने कमरे में जाता।
आज वेतन का दिन था। इस बार शरनी ने पहले ही पति को मना लिया था कि अब वेतन उसे दिया करे क्योंकि माँ ने तो सभी लड़कियों की शादी कर दी है। अब तो उनकी जीती भी बड़ी हो चली है और बच्चों की ट्यूशन फीस भी उसे माँ से माँग कर देनी पड़ती है। कई बार तो माँ के पास छुट्टे पैसे नहीं होते और बच्चे रो-रो कर स्कूल जाते हैं। उनकी अध्यापिका उन्हें क्लास में खड़ा कर देती है और कई बार तो वापस घर ही भेज देती है।
गुरदयाल सिंह ने ‘हाँ’ में सिर हिला तो दिया, लेकिन बेबे को छोड़कर पत्नी को वेतन देना, उसे एक गहरी खाई पार करने के समान लग रहा था।
वही बात हुई। बेबे हर बार की तरह दरवाजे पर खड़ी थी।
बेबे, अब मैं वेतन शरनी को दिया करूँगा।
न बेटा! बेगानी बेटियां कब घर बनाती हैं। ये तो उजाड़ा करती हैं। यह तो मैं ही हूँ जिसने सारा घर सँभाल कर रखा है।यह कहते हुए माँ ने आज भी वेतन पकड़ लिया।
शरनी भी दरवाजे के पीछे खड़ी, सब देख-सुन रही थी। ‘बेगानी बेटी’ सुन कर उसका कलेजा फट गया। उसने दरवाजे के पीछे से निकल, सास के हाथों से पैसे उठाते हुए कहा, बेबे, आप भी इस घर में ब्याही आई थीं, इसलिए ‘बेगानी बेटी’ ही हुईं।
फिर वह अपने पति को जीत का अहसास कराती अंदर चली गई।
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Wednesday 16 November 2011

माँ का रुदन


कुलदीप माणूँके

शाम कौर पिछले सप्ताह से पी.जी.आई अस्पताल में दाखिल थी। उसके दोनों लड़के सरकारी विभागों में अधिकारी थे। दोनों बारी-बारी से आकर माँ का हाल-चाल पूछ रहे थे। बड़े लड़के ने छोटे से कहा, बलदेव! मैं अब एक हफ्ता नहीं आ सकता। तेरे भतीजे के पेपर हैं। मेरे डर से वह चार अक्षर पढ़ लेगा।
वीर जी, मेरे दफ्तर में तो ऑडिट चल रहा है। मेरा यहाँ माँ के पास रह पाना कठिन है।छोटे बलदेव ने कहा।
उनकी बहन किंदी पहले दिन से ही माँ के पास अस्पताल में थी। दोनों भाइयों की बात सुनकर वह बोली, वीर जी! आप दोनों जाओ, मैं हूँ ना यहाँ। मैं सँभाल लूँगी माँ को।
दोनों भाई वापसी की तैयारी करने लगे। मां रो रही थी। वह सोच रही थी, वह तब क्यों रोई थी, जब किंदी पैदा हुई थी?
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Monday 7 November 2011

चोट


पूनम गुप्त (डॉ.)

नित्य की तरह उस दिन भी मनजीत दफ्तर से घर आ रही थी। अचानक मोड़ पर दूसरी ओर से आ रही कार से टकराकर वह स्कूटर समेत गिर पड़ी। चोट ज्यादा नहीं लगी थी। साहस जुटा वह उठी और धीरे-धीरे स्कूटर चला किसी तरह घर पहुँच गई। उसका पति महेंद्र भी दफ्तर से घर आ चुका था।
कुछ देर बाद मनजीत ने ऐक्सीडेंट की घटना महेंद्र को बतानी शुरू की। अभी वह अपनी बात पूरी कर ही रही थी कि उसकी बात बीच में ही काटते हुए महेंद्र बोला, तुमने अंधाधुंध चलाया होगा स्कूटर! और तुमने क्या करना था!
हमदर्दी के दो शब्दों की जगह पत्थर की तरह गिरे वे बोल सीधे मनजीत के दिल पर लगे। शरीर की अंदरूनी चोटों के साथ-साथ दिल पर लगी इस गहरी चोट का दर्द पहले से कहीं अधिक उसके चेहरे और आँखों से टपक रहा था।
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