प्रीत नीतपुर
साइकिल बाहर खड़ा कर, सिर
झुका मैं झोंपड़ीनुमा उस छोटी-सी दुकान में दाखिल हुआ। अंदर ज्ञानी तो था ही नहीं।
अड्डे पर बैठा बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का, जनाना सैंडिल की स्ट्रैप को टाँके लगा
रहा था।
अंदर पत्थर की
बनी सीट पर बैठते हुए मैंने पूछा, “बेटे तेरे डैडी…?”
लड़के ने मेरी ओर
सरसरी व पाँव में पहने जूते की ओर हसरत भरी नज़र डालते हुए कहा, “वह तो जी, ब्याह में गया
है, साथ मम्मी भी। मेरे मामा की लड़की का ब्याह है, उधर बहुत दूर बठिंडे की तरफ,
मेरी ननिहाल।”
“ननिहाल में ब्याह था…तू
क्यों नहीं गया?”
“डैडी हम में से किसी को
भी लेकर नहीं गया।” लड़का किसी अनाड़ी
व्यक्ति के बनाए गोले की तरह उधड़ता चला गया, “वह कहता, अगर सभी जने गए
तो किराया बहुत लगेगा। और मम्मी कह रही थी कि यहाँ हमारे गुरुद्वारे में यज्ञ होना
है। जलेबियाँ बनेंगी, जितनी मर्जी खाओ, पेट भर। वहाँ ब्याह में तो पता नहीं…।”
“फिर तू जलेबियाँ खाने
क्यों नहीं गया?”
“मेरे सभी भाई-बहन तो गए
हुए हैं, सुबह से ही। मुझे दादी कहती, तू दुकान खोल ले। बस गुड़-चाय के लिए पाँच
रुपये बन जाएँ, फिर तू भी गुरुद्वारे चले जाना…।”
“कितने पैसे बन गए अब तक?”
“अभी तो कोई तीन रुपये ही
हुए हैं।”
“बेटे!” लड़के की पीठ थपथपाते
हुए मैंने कहा, “गरीबी आदमी के लिए सबक
है, एक परीक्षा है। डगमगाना नहीं…मेहनत ही गरीबों का असली गहना है। ले पकड़, मेरे
जूते पालिश कर।”
पालिश करते समय
लड़के का चेहरा लाल गुलाब की तरह खिला हुआ था।
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