Sunday, 6 July 2014

अँधेरा



जगरूप सिंह किवी

पुराने कपड़ों के बदले बरतन बेचने वाली औरत से मेरा भाव नहीं बन पाया। मैंने कपड़ों के दो ढ़ेर उसके सामने लगा दिए थे। कई कपड़े तो बिल्कुल नए जैसे ही थे। पर वह स्टील का एक छोटा पतीला मात्र देने पर अड़ी हुई थी। मैं साथ में एक जग भी लेना चाहता था। आखिर मैंने कुछ सोच, उसे कपड़े देने से मना कर दिया।
कुछ देर बाद मैं अनाथालय में सभी कपड़े दान देकर वहाँ से बाहर आया तो मन में शांति थी। सोचा, कपड़े नंग-धड़ंग बेसहारा बच्चों के तन ढ़कने के काम आएँगे।
शाम को मैं अनाथालय के गेट के आगे से गुज़रा तो देखा कि वही बरतनों वाली मेरे कपड़ो को एक मैली-सी चादर में बाँध रही थी। वह चेहरे पर खचरी-सी मुस्कान लिए मेरी ओर देख रही थी। स्टील का छोटा पतीला मैनेजर की मेज पर पड़ा था।
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