Sunday, 3 August 2014

साँझ



हरभजन सिंह खेमकरनी

गाँव में मैरिज-पैलेस बन जाने से गाँव के लोगों को सुखद अहसास हुआ सबकुछ एक ही जगह, न चाँदनी-कनात का झँझट, न गुरुदुआरे के बरतनों की जरूरत। और न ही लकडी-बालन की चिंता। चाय-पानी व खाना बनाने और परोसने की जिम्मेदारी भी पैलेस वालों की। लिस्ट के अनुसार सामान दो और बेफ़िक्र हो जाओ।’— यह सोचते हुए कर्मजीत सिंह ने लड़की की शादी के लिए पैलेस बुक करवा दिया। कर्मजीत सिंह का पिता सोचने लगा कि बेटे ने ठीक ही किया। आजकल रिश्तेदार भी कौन-सा काम करवाते हैं। पहले तो सारा गाँव ही बारात की सेवा के लिए उमड़ पड़ता था। अब तो लड़के-लड़कियाँ नाच-कूद तक सिमट कर रह गए हैँ, डैक बंद ही नहीं करने देते।
निश्चित दिन पैलेस में रिश्तेदार व सज्जन-मित्र पहुँचने शुरू हो गए। कुछेक ने हाथ में शगुन वाले लिफाफे पकड़ रखे थे ताकि फोटो में आ सकें। एक तरफ खड़े निहाल सिंह सरीखे एक-दो बुजुर्ग प्रतीक्षा कर रहे थे शादी वाले परिवार का कोई व्यक्ति चाय-पानी के लिए कहे। उन्होंने देखा कि सभी सीधे मिठाई वाले मेजों की और जा रहे थे। निहाल सिंह ने केहर सिंह की ओर सवालिया नज़रों से देखा तो वे दोनों भी उधर को हो लिए।
“निहाल सिंह, अब तो बरतन साफ करने वाली महरी की भी जरूरत नहीं रही। देख प्लेटें भी कागज की और गिलास भी। खाओ-पीओ और टब में फेंको।”
“हाँ भाऊ जी, पहिले समय में शादी वाले घर से नाई साँसी, झीवर, तथा कई और परिवारों की रोजी-रोटी चलती थी। उनका हक तो मारा गया।”
“बात तो तुम्हारी ठीक है, पर वक्त के साथ बदलना ही पड़ता है। आजकल तो दहेज के सामान की लिस्ट के साथ लड़के वाले पैलेस का नाम भी लिख कर भेजते हैं। नया-गाँव वालो को इसीलिए लड़की की शादी शहर में करनी पड़ी थी। वैसे देख ले छोटे-बड़े सब एक हुए पड़े हैं। पहले अपने को कौन चाय-पानी व मिठाई के पास फटकने देता था। बड़े घरों की शादियों में, बस जूठन इकट्ठी कर के दे देते थे।
चेहरे पर कड़वाहट-सी लाते हुए केहर सिंह ने चाय का आखरी घूँट भरा और गिलासी टब में फेंक दी।
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