Sunday 20 July 2014

निष्ठा



जसबीर बेदर्द लंगेरी

दो-ढ़ाई मील तो है शहर, जितनी देर बस का इंतजार करूँगी, उतने में तो पैदल चल कर ही पहुँच जाऊँगी।’यह सोच कर वह पैदल ही शहर की ओर चल दी।
अभी वह गाँव के बाहर ही निकली थी कि उसके पास गुरजीत पटवारी ने स्कूटर को ब्रेक लगाते हुए कहा, बैठ जाओ भाभी जी, मैं भी शहर ही जा रहा हूँ।
सिमरन को स्कूटर के पीछे बैठी देख, चुगलखोर तारो तुरंत उनके घर पहुँच गई। सरसों का साग चुन रही सिमरन की सास की चारपाई के पास पीढ़ी पर बैठ बाथू चुनते हुए बोली, सास-बहू अकेली लगी रहती हो, मुझे बुला लिया करो। मैं कौनसा इंकार करती हूँ। सच, सिमरन कहीं गई है, मुझे लग रहा था जैसे वह पटवारी के स्कूटर के पीछे बैठी हो।
उस बेचारी ने कहां जाना है! नम्रता की फीस जमा करवानी थी, आज आखरी तारीख है। साथ में कहती थी, थोड़ा-सा सामान ले आऊँगी घर का…।चुने हुए साग को एक तरफ रख, मुँह पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए सास ने कहा।
बेबे, एक बात कहूँ, गुस्सा न करना। सिमरन शहर चाहे रोज जाए, कोई डर नहीं। पर जीत का तो तुम्हें पता ही है, बंदा ठीक नहीं। औरतों को तो बातों से ही फुसला लेता है, देखना कहीं…।
चुप कर री, सदा लगाने-बुझाने में ही लगी रहती है। कभी तो अच्छा सोच लिया कर। मेरी सिमरन पर मुझे गर्व है। मैंने उसकी निष्ठा और विश्वास को परख लिया है, अब कुछ कर भी ले तो मुझे कोई गुस्सा नहीं। वह तो अब पास है। फेल तो मेरा बेटा है जो शादी के तीन माह बाद ही गोरों की धरती पर किसी और का हो गया था।
सिमरन की सास ने तारो को बीच में ही झाड़ते हुए कहा और बुडबुड़ाती हुई रसोई की तरफ चली गई।
                          -0-

No comments: