जगरूप
सिंह किवी
सब हाथों-पैरों
में आ गए। सरकारी हूटर बज रहा था। लोग अपने घरों से निकल कर खुले आसमान के नीचे
जमा होने शुरु हो गए। गुरुद्वारों व मंदिरों से अनाउंसमेंट हो रही थी। भूचाल किसी
भी समय आ सकता था।
रमेश ने अपनी एफ.डी.आर, मकान की रजिस्टरी के कागज़, बीमे की
रसीदें तथा चल व अचल संपति के सभी ज़रूरी कागज़ों को समेटा और बाहर की ओर दौड़
पड़ा। वह लगातार चीख रहा था। उसकी पत्नी ने अपने गहने एक थैली में डाले और बच्ची
को आवाज़ें देती पति के पीछे भागी। दोनों बाहर खड़े अपनी बेटी रीटा को आवाजें दे
रहे थे।
कुछ देर बाद रीटा एक हाथ पर दूसरा हाथ रखे धीरे-धीरे बाहर
आई।
“क्या कर रही थी बेवकूफ? तुझे पता नहीं मौत किसी भी वक्त…” कहते हुए रमेश ने उसके
मुँह पर एक चपेड़ जड़ दी।
“पापा, खाने के लिए चने ला रही थी। जब भूख लगेगी तो हम सब खा
लेंगे।” उसकी छोटी-सी अंजलि में
से कुछ भुने हुए चने नीचे गिर पड़े।
-0-
No comments:
Post a Comment