गुरचरण
चौहान
हाकम सिंह के
बड़े बेटे नछत्तर की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। जवानी में हुई इस मौत से घर
में मातम छा गया था। उसकी जवान पत्नी, औरतों की पकड़ से निकल-निकल लाश के ऊपर
गिरती छाती पीट रही थी।
लाश का अंतिम संस्कार हो गया। तीसरे दिन अस्थियां चुगी गईं।
अस्थियां चुगवाने आए नछत्तर की ससुराल से एक बुजुर्ग ने हाकम सिंह से बात चलाई, “हाकम सिंह जी, हमारी बेटी
के लिए तो अब जग में अँधेरा ही अँधेरा है…पहाड़-से जीवन के लिए कोई तो आसरा चाहिए…कहो
तो दशहरे के दिन हम छोटे बेटे के लिए पगड़ी ले आएँ…विचार कर लेना…रब का भाना मान
कर दोनों बेटियाँ एक ही चुल्हे पर रोटी खा लेंगी…।”
“कोई बात नहीं, हमारी ओर
से तो कोई एतराज नहीं…।” हाकम सिंह ने नछत्तर के ससुराल वालों को धीरज बँधवाया।
माता-पिता ने नछत्तर से छोटे स्वर्ण को राजी कर लिया। परंतु
स्वर्ण की पत्नी के पास जब यह बात पहुँची तो उसने घर में तूफ़ान खड़ा कर दिया।
उसकी पत्नी कर्मजीत ने तो एक ही रट लगा रखी थी, “कुछ हो जाए, मैंने ये
नहीं होने देना। मैं अपने साईं को कैसे बाँट लूँ…।”
कर्मजीत के इस निर्णय से उसके मायके वालों की भी सहमति थी।
दशहरे का दिन आ गया। कर्मजीत को मनाने के सभी प्रयास विफल
रहे। आँगन में सोग प्रकट करने वालों से अलग होकर हाकम सिंह, उसकी पत्नी, स्वर्ण,
कर्मजीत और नछत्तर व स्वर्ण के ससुर अभी भी इस मसले का हल ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे
थे। परंतु कर्मजीत अपने फैसले पर अड़ी हुई थी।
“बात सुन लो भई सभी…मैं करूँगा ज़मीन के तीन हिस्से…एक
हिस्से की ज़मीन दूँगा स्वर्ण को…नछत्तर का और मेरा हिस्सा होगा अलग…मैं तो नहीं
चाहता था कि ज़मीन बंटे…चाहता था कि सारी का मालिक बने स्वर्ण…पर अब जब तुम्हारी अड़ी
ही है तो अब मेरी भी अड़ी देखना…।” लाठी के सहारे खड़े होते हुए हाकम सिंह ने अपना निर्णय
सुनाया।
स्वर्ण के ससुराल वालों के मुँह खुले के खुले रह गए। वह
कर्मजीत को समझाने लगे। ज़मीन बाँटने वाली बात ने सबको हिला दिया।
भोग पड़ जाने के बाद नछत्तर की ससुराल वाले स्वर्ण के पगड़ी
बँधवा कर चले गए।
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