लाल
सिंह कलसी
“मैंने कहा, कालू के बापू
सो गया?” बीरो ने संते को हिलाते
हुए पूछा।
“सो लेने दे, सुबह से काम करके थका पड़ा हूँ। मुश्किल से
कहीं आँख लगी थी। बता क्या बात है?”
“वो न, आज छोटी डॉक्टरनी आई थी। कहती थी, अब तो छटा महीना
है, अब कुछ नहीं हो सकता।” बीरो ने नम आँखों से तरस भरी आवाज़ में कहा।
“…तो अब क्या होगा? संता उछल कर उठ बैठा। उसके दिमाग में कई तरह के खर्चों का हिसाब-किताब घूमने
लगा।
“मैं क्या बताऊँ! डॉक्टरनी कहती थी, मैं तुम्हारी आगे बात
करवा दूँगी।” बीरो डरते-डरते बोली।
“क्या…? क्या बात करवा
देगी?” संते का मुँह खुला रह
गया।
“यही कि किसी जरूरतमंद को बच्चा दिला देगी।” बीरो ने सहजता से बात
पूरी की।
“अच्छा…! पर हम अपनी जान को किसी और के हाथों में कैसे दे
देंगे, पागल।”
“नहीं, वह कहती थी कि कुछ पैसे भी दिलवा दूँगी।” बीरो को जैसे पकी फसल
जितना हौसला हो गया था।
“कितने पैसे दिलवा देगी वह डॉक्टरनी?
“यह तो मैंने बात नहीं की तेरे डर से। पर तू अपनी राय बता
दे।”
“कम से कम पाँच हजार तो हों ही। चार तो सीबो के ब्याह का ही
देना है और दो तेरे भतीजे के वक्त पकड़ा था, कपड़े वगैरा के लिए।”
“कभी किसी ने दूध-पूत भी बेचे हैं, कालू के बापू! यह तो हम
मजबूरी के मारे जहर का घूँट पी रहे हैं।”
“यह दूध-पूत वाली बातें तू रहने दे, अब बिकता ही यही कुछ
है…जब माँग कर दहेज लेते हैं तो बेटों का सौदा ही तो करते हैं…।
“हाँ!…बात तो तेरी ठीक है, कालू के बापू! पर अगर लड़की हो गई
तो?”
“चल सो जा, क्यों यूँ ही सिर खा रही है।” संते ने खेस ओढ़ा और सो
गया।
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