Sunday, 26 January 2014

हाथ की लकीरें




नरिंदरजीत कौर

बी.ए. भाग तीन का आज पहला पेपर था। शारदा के सामने पर्चा खुला पड़ा था। पर्चे के प्रश्न पढ़ कर उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। क्या लिखे? प्रश्न सब जाने-पहचाने थे।, पर सबकुछ जैसे धुँधला सा हो गया था। वह जितना याद करने की कोशिश करती, उतना ही उसका सिर चकराने लगता। एक बार तो मन किया कि अपनी रामकहानी लिखकर, पर्चा चैक करने वाले को बताए, पर क्या इससे कोई फायदा होगा? खाली पेपर पर कोई क्या रहम करेगा! फिर क्या करे?
परीक्षा से कोई सवा महीना पहले ही उसका विवाह हुआ था। उसने कितना चाहा था कि पिछले दो वर्षों की मेहनत और अच्छे अंकों को तीसरे वर्ष भी उसी तरह जारी रखे। उसने अपनी माँ को दिल की बात कहने की कोशिश भी की कि विवाह को कुछ महीने आगे डाल दो। माँ ने तो बस, माँ वाली बात ही की। कहने लगी, ‘दो महीने इधर क्या और उधर क्या। यह काम तो जितनी जल्दी सम्पूर्ण हो जाए, उतना ही भला। काम बिगड़ने का पता नहीं चलता।’
और फर्क शायद उसकी ससुराल वालों को भी नहीं पड़ा था।
‘लो, हमने कौन सी नौकरी करवानी है। छोड़ परे।’ उसकी सास बोली थी।
‘अजी, मैंने कहा सोहनिओं! बहुत किताबें पढ़ लीं, अब तो हमारे दिल की किताब पढ़ा करो।’ उसके पति ने फैसला स्पष्ट कर दिया।
ना, क्या भाई से बराबरी करनी है?’ छोटी ननद कहाँ पीछे थी।
ज़िंदगी में कुछ बनने का सपना, शारदा को उँगलियों से सरकता नज़र आया। डोली उठने से पहले, उसके पिता ने कहा था–‘मन लगाकर परीक्षा की तैयारी करना। हाथ में डिग्री होनी बहुत ज़रूरी है। हालात का कुछ पता नहीं चलता।’
उस समय उसका मन किया था कि चीख कर कहे कि फिर दो महीने रुक जाते।
दो पाटों के बीच में पिसी जा रही शारदा को कोई राह नहीं सूझ रहा था। किताबें तो जैसे अटैची में डाल कर रखने के लिए ही लाई थी। सारा दिन सास किसी न किसी काम में लगाए रखती। ननद की फरमाइशें भी कम नहीं थीं। कई बार वह सोचती, दिन में तो वक्त नहीं मिलता, रात को बैठकर पढ़ेगी। पगली यह भूल जाती कि ब्याहता की रात उसकी कब होती है।
आज वह पेपर देने बैठी थी। उसके साथ बैठी सहेलियाँ फटाफट लिखे जा रही थीं। ये वही सहेलियाँ थीं, जो कुछ दिन पहले उससे कह रही थीं–‘शारदा, तू कितनी खुशकिस्मत है! पढ़ते-पढ़ते ही वर ढूँढ़ लिया।’ पर आज शारदा को वे सब अपने से ज्यादा खुशकिस्मत लग रही थीं।
उसका दिल डूब रहा था, ‘हाय! कहीं फेल हो गई तो क्या करूँगी! अगली बार तो कोई पेपर भी नहीं देने देगा। ऊपर से ताने अलग।’ उसका मन रोने को हुआ। उसने अपनी हथेलियों को ध्यान से देखा, मेहँदी के रंग ने उसके हाथों की लकीरों को फीका कर दिया था।
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1 comment:

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

रंगीन झालरों में छिपा बेदाग़ सच...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

~सादर
अनिता ललित