निर्मल
कौर संधू
हर वर्ष की तरह
आज भी कृतिका ने करवा चौथ का व्रत रखा हुआ था। कृतिका जल्दी-जल्दी घर का काम समेट
रही थी, साथ ही सोच रही थी कि जबसे उसका विवाह हुआ है, इस घर में उसे क्या सुख
मिला है? संजय, उसका पति, उससे
दिन में एक बार भी हँसकर प्यार के दो बोल बोल ले, बस इतने से ही वह खुश हो जाए। पर
पति शराबी हुआ लुढ़कता घर आए, जिसे अपनी भी होश न हो…।
आज सुबह भी वह रात की बची दो रोटियाँ खाकर लेट गई थी। वह
सोच रही थी कि आगे-पीछे न सही, आज के दिन तो सभी के पति फेनियाँ-दूध व मिठाई न
सही, कम से कम केले तो ले ही आते हैं। कृतिका अनमने से टी.वी लगा कर बैठ गई। पर
भूखे पेट उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। चाव-भाव से रखा व्रत, पता ही नहीं चलता
कब पूरा हो जाता है।
कृतिका ने सोचा–वह ऐसे पति की
लंबी उम्र के लिए व्रत रख रही है, जो जरा भी उसकी परवाह नहीं करता। जब दिल करता है
किसी का भी गुस्सा उसके ऊपर निकाल देता है, मारता है, पीटता है। न ही वह बच्चों को
प्यार करता है। उसे देख तो दोनों बच्चे छुप जाते हैं।
कृतिका ने आलू उबाले। चूल्हे पर कड़ाही रख आलू की सूखी
चटपटी सब्जी बनाई और साथ में पतले-पतले पराँठे। थाली में सब्जी, पराँठे, आम का
आचार, दही की कटोरी रख, वह टी.वी. के सामने बैठ खाने लगी। उसने घड़ी में समय देखा– दोपहर के दो बजे थे।
वह मजे से खाना खाती खुश थी कि अब कभी करवा चौथ का व्रत
नहीं रखेगी।
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