Thursday, 19 December 2013

रोटी



जश्नदीप कौर सरां

जैला चारपाई पर पड़ा ‘हाय-हाय’ कर रहा था। अफीम नहीं मिली थी खाने को और घर पर रोटी पकाने को राशन भी नहीं था। मीतो को बहुत चिंता थी। रात को बच्चे भूखे ही सो गए थे, पर नींद कहाँ से आती, करवटें ही बदलते रहे। अपने दस व बारह वर्ष के कंते व सैनी को उसने सुबह ही गुरुद्वारे भेज दिया था। वहाँ निर्माण कार्य चल रहा था। यद्यपि वहाँ लोक सेवा थी, पर रोटी तो मिल ही जाएगी। शाम की शाम को देखी जाएगी।
मीतो को अपने पति जैले की हालत पर गुस्सा भी आ रहा था और तरस भी। जमींदार लोग पहले तो काम करवाने के लिए, चाय में पोस्त उबाल-उबाल कर पिलाते हैं। जब नशे कारण मज़दूर नकारा हो जाता है, फिर कोई नहीं पूछता। नशे तो खा जाते हैं व्यक्ति को। ठंडे चूल्हे में गरीबी की आग को जलाती मीतो उठ खड़ी हुई। आँगन में टूटी-सी चारपाई पर लेटे जैले ने पूछा, अब कहाँ जा रही है?
सरदारनी कर्मजीत के पास। बड़े पुण्य का काम कर रहे हैं, गुरुद्वारे में कमरे डलवा कर। क्या पता पैसे मिल जाएँ, पूछ आऊँ।कह कर वह चल पड़ी। जब वह कर्मजीत के घर पहुँची तो वहाँ कामवाली औरतें कपास निकाल रही थीं। वह भी टिंडों से कपास निकालने लग गई।
पहले भी मीतो गाहे-बगाहे आ जाया करती थी। पर आज विशेष रूप से पैसे लेने आई थी। वह इधर-उधर की बातें करती रही, पर उसकी पैसे माँगने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कितनी ही देर बाद, अपनी बिखरी हिम्मत बटोरते हुए, घबराई-सी आवाज़ में बोली, बीबी जी! मैं तो एक काम से आई थी।
कर्मजीत को समझते देर न लगी। उसने एकदम कहा, पैसे तो हैं नहीं, यही काम होगा तुझे।
काम तो यही था। कल का आटा खत्म है, न ही नमक-मिर्च है। सचमुच कुछ नहीं है घर में खाने को।मीतो की आँखों में आँसू भर आए।
पैसे तो पहले ही गुरुद्वारे में लग रहे हैं। अगर पैसे होते तो ज्यादा कहलवाना ही नहीं था मैंने।
बीबी जी ’गर मेहर हो जाती तो…।मीतो की आवाज़ गले में अटक गई।
पैसे कहाँ से दे दें हर ऐरे-गैरे को। वृक्षों पर तो लगते नहीं।पास बैठी कर्मजीत की सास बुड़बुड़ाई।
मीतो की शेष बची हिम्मत भी जवाब दे गई। वह मुश्किल से उठी और बोझिल पैरों को घसीटती हुई  बाहर आ गई।
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