नायब
सिंह मँडेर
बस-अड्डे पर बैठी
तारो का अंदर आँखों के रास्ते फूट पड़ा। वह इतना रोई कि सुबकियाँ लेते उसका गला
सूख गया। वह बेहोश हो गई। अपनी बेटी को तीज के त्यौहार का सामान देकर वापस आई मेलो
ने देखा कि तारो चबूतरे पर औंधे-मुँह बेहोश पड़ी थी। उसने तारो को हिलाया और भागकर
नलके से पानी लाकर तारो के मुंह को लगाया। तारो को कुछ होश आया।
“क्या बात री, तेरा ये हाल?” मेलो ने कहा।
तारो बिना कुछ बोले मेलो के सीने से लग कर फिर से सुबकने
लगी।
“अरी, सुख से तुझे किस बात की कमी है? अच्छी ज़मीन-जायदाद
है, बहू-बेटे तेरी सेवा करने को। बेटी तेरे नहीं कोई, बी उसका दुःख है।” मेलो ने रो रही तारो से
कहा।
तारो ने दुपट्टे के पल्लू से मुँह पोंछते हुए कहा, “मेलो, तुम तो मुझसे सौ
गुना अच्छी है, जिसकी इकलौती बेटी, काँटा चुभे पर भी भागी आती है। मेरी जून कितनी
खराब है, यह मैं ही जानती हूँ। दस दिन हो गए बुरी बीमारी लगी को, किसी ने पूछा तक
नहीं। बेटी होती तो हाथों पर उठा लेती।” अपना दर्द बता तारो फिर रो पड़ी।
“ना री, दुखी न हो,
रब भली करेगा। चल घर चलें।”
“अरी मेलो, किस घर की बात करती है, घर तो उसी दिन पराया हो
गया था, जब से तेरा जेठ गुजरा है। कोई जात नहीं पूछता।” तारो ने दुखी मन का दर्द
बयान किया।
“अरी, बहू नहीं बुलाएगी, बेटे को तो तरस आएगा। चल मेरे साथ
घर चल।” मेलो ने ज़ोर देकर कहा।
“मेलो, कौनसे बेटे की बात करती है, उससे तो ससुरालिए ही नहीं
सँभलते। उसने आज मुझे धक्के देकर बाहर निकाल दिया।” तारो फिर बेहोश हो गई।
गाँव की पंचायत उसे उठा कर घर ले गई। बेटे का मुँह देखने को तरसती रही मेलो के मुख
से स्वयं ही निकल गया, “बेटे की माँ होने से तो बेटी की माँ होना ही अच्छा।”
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