बिक्रमजीत
नूर
बाबू कुलदीप राय
ड्यूटी के लिए लेट हो रहा था और इधर पंडित जी के आने का कोई रंग-ढंग नहीं था। वह
तो सुबह से कई चक्कर लगा आया था। वैसे तो उसने रात भी गुज़ारिश कर दी थी।
पिछले कई वर्षों से श्राद्धों में वे इसी पंडित को न्योता
देते रहे हैं। आज भी कुलदीप राय के पिता का श्राद्ध था।
लगभग आठ बज चुके थे। खीर-पूरियाँ व हलवा वगैरा सब कुछ
दो-ढाई घंटों से तैयार पड़ा था। कुलदीप राय खीझने लगा। पति-पत्नी के साथ दोनों
बच्चे भी बिना कुछ खाए बैठे थे। फिर बच्चों ने तो स्कूल भी जाना था।
कुलदीप राय के पास तो छुट्टी भी कोई नहीं बची थी। ऊपर से दफ्तर
में हिसाब-किताब की पड़ताल चल रही थी। आज तो समय से पहले जाना ज़रूरी था।
कुछ देर पहले फटे-हाल, बिखरे बालों वाले, भिखारी से दिख रहे
एक आदमी ने अपने मुँह की ओर इशारा करते हुए उससे खाने को कुछ मांगा था। कुलदीप ने उस
बुजुर्ग की ओर ध्यान नहीं दिया था। बुजुर्ग भी जल्दी ही आगे चला गया था।
“बच्चों को तो तैयार कर स्कूल भेज, खाना बाद में वहीं पकड़ा
आना।”कुलदीप राय ने ऊँची आवाज़
में पत्नी को कहा, जो उसकी तरह ही परेशान थी।
बच्चों को स्कूल भेजने के पश्चात कुलदीप राय को लगा जैसे
पंडित जी आ गए, पर वास्तव में वह भिखारी-सा दिखता बुजुर्ग ही था।
कुलदीप राय ने बिना समय गंवाए बुजुर्ग को अंदर बुलाया। उसके
हाथ-पाँव धुलवाए और पोंछने के लिए नया तौलिया आगे कर दिया। चादर-बिछी दरी पर
बैठाकर बुजुर्ग को बहुत ही श्रद्धा से भोजन करवाया। एक सौ एक रुपये नगद भेंट किए।
पेट भर खाने के बाद बेतहाशा संतुष्टी और खुशी के कारण
बुजुर्ग से कुछ भी बोला नहीं जा रहा था।
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