Monday 24 September 2012

साझा दुःख


हरभजन खेमकरनी

परवीन को मायके आए सात-आठ दिन हो गए थे। चलते वक्त उसकी सास ने कहा था कि दो-तीन दिन में लोट आना। ब्याही बेटियाँ मायके में अधिक दिन रहें तो लोग कई तरह की बातें बनाने लग जाते हैं। लेकिन उसे अपनी जेठानी गीता के पड़ोसन को कहे बोल बेचैन कर रहे थेः
बहन, इस बार जब मायके गई तो दो हज़ार वाल सूट लाउँगी। आती बार मम्मी को कह आई थी कि सूट ला कर रखना और इनके लिए जीन्स भी।’
‘हाँ बहन, तुम हुई अकेली, तुम भी तीन-चार बहनें होतीं तो…’
‘मम्मी कहती थी कि बेटियों को मायके से हर बार कुछ न कुछ मिल ही जाता है, पर दामाद की बारी तो कभी ही आती है।’ पड़ोसन की बात अनसुनी कर गीता ने कहा था।
‘तेरी बात तो ठीक है, मायके से मिलता रहे तो ससुराल में इज्जत बनी रहती है। जब भी मायके से आएँ तो सारे परिवार की नज़र बैग पर ही लगी होती है। माँ-बाप जैसे-तैसे भेजते वक्त बेटी को कुछ न कुछ ज़रूर देते हैं।’ पड़ोसन ने आह भरते हुए अपना दुःख व्यक्त करने का प्रयास किया तो गीता ने नाक-भौं सिकोड़ लिए।
परवीन खुश भी हुई और उदास भी क्योंकि वह अपने मायके की स्थिति से अनजान नहीं थी। कई बार मुश्किल से बस का किराया देते हुए उसकी माँ ने कहा था– ‘देख बेटी, तुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, अभी तेरी दो बहनें और सिर पर चढ़ी खड़ी हैं। अगली बार जरूर कुछ न कुछ…’ आगे माँ की जुबान साथ न देती।
तभी उसे अपनी सास की कही बात याद आई। उसने कहा था– ‘देख बेटा, बेटियाँ मायके और ससुराल की इज्जत की बराबर की भागीदार होती हैं। तेरे सामने तेरी ननद को केवल प्यार देकर ही विदा किया है। तेरी जेठानी थोड़ी घमंडी स्वाभाव की है, माँ-बाप की इकलौती बेटी जो हुई। मैंने उसकी माँ को कई बार हाथ जोड़ कर कहा है कि देन-लेन न किया करे। पर वह तो कहती है कि सबकुछ लड़की का ही है, हाथ से देंगे तो जग में शोभा बढ़ेगी। पर बेटी, उसकी रीस कर तू अपने माँ-बाप को तंग न करना।’
दुविधा में पड़ी परवीन ने जब यह बात माँ को बतायी तो उसके चेहरे पर चमक आ गई। वह बोली, सवेरे तेरा भाई तुझे बस में बिठा देगा।
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