मंगल कुलजिंद
“डॉ.
मित्तल, मेरी जमीर नहीं इज़ाज़त देती कि उल्टे-सीधे काम करके तिजोरियाँ भरी जाएँ।”
“डॉ. प्रेम! नहीं चलता, हम जिस समाज में
रेंग रहे हैं, वहाँ पैसा ही सब कुछ है।”
“मैं नहीं मानता यार, सभी लोग पैसे के
गुलाम नहीं होते।”
क्षेत्र के प्रसिद्ध कालिज के
परिसर में दोनों डॉक्टर दोस्त बातें कर रहे थे। वे बहुत समय बाद मिले थे। बातों का
सिलसिला पैसे की महानता पर आकर अटक गया था। डॉ. प्रेम की बात का जवाब देते हुए डॉ.
मित्तल ने कहा, “तेरे
मानने या न मानने से क्या होता है! ये लैक्चरार की पोस्ट के लिए होने वाले अपनी
बेटियों के मुकाबले में ही देख लेना।”
डॉ. प्रेम भावुक हो गया, “यार इस
नामी कालिज में लग कर बच्चों को ज्ञान बाँटने का मेरी बेटी का बड़ा अरमान है।”
“अरमान तो मेरी बेटी का भी है।” डॉ.
मित्तल ने जवाब दिया।
डॉ. प्रेम दृढ़ता से बोला, “लेकिन
मुझे अपनी बेटी की योग्यता पर पूरा भरोसा है, यह पोस्ट उसे ही मिलेगी।”
“अच्छा…! डॉ. मित्तल के चेहरे पर
वयंग्यमयी मुस्कान फैल गई।
“तुम सलैक्शन-कमेटी के किसी सदस्य से
मिले हो? किसी मनिस्टर से फोन करवाया है? किसी
सदस्य को गिफ्ट दिया है?”
“न ही गिफ्ट दिया है और न ही देना है।” डॉ.
प्रेम की ज़मीर की आवाज़ थी।
“तो जा फिर घर!” डॉ. मित्तल ने
एक तरह से आदेश ही सुना दिया।
“क्यों?”
“क्योंकि तुम्हारी बेटी के इस अरमान-रूपी
भ्रूण की हत्या करने के लिए कमेटी के सदस्यों ने मेरे गिफ्ट कबूल कर लिए हैं।” डॉ.
मित्तल के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी।
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