जसबीर ढंड
नई-नई गाँव में ब्याहता आई थी।
मेरे माँ-बाप
द्वारा किसी तरह जुटाए गए दाज की कोई भी वस्तु जैसे इनके घरवालों को पसंद नहीं आई।
पाँच-छः दिन
बाद ही मुझे चौके पर चढ़ा दिया गया था। बस फिर तो चल सो चल…।
ये तो सुबह ही
ड्यूटी पर शहर चले जाते। सुबह अंधेरे उठ रोटियाँ बना इनका टिफिन तैयार करती। सुबह
के गए शाम को घर लौटते। इनके जाने के पश्चात तो ऐसे लगता जैसे सारा परिवार एक तरफ
और मैं अकेली एक तरफ।
पहले सारे
परिवार को चाय-नाशता बना कर देती, फिर कपड़े धोने बैठ जाती। सारा परिवार कपड़े
उतार-उतार कर मेरे आगे फेंकता रहता।
आँगन में लगा
बैलगाड़ी-सा चलने वाला भारी नलका भी जैसे मुझसे बदला लेने के लिए ही खड़ा था।
नलका चलाने
लगती तो साँस फूलने लगती। नलके की हत्थी पर पूरा जोर डाल कर नीचे करती तो वह
स्प्रिंग की तरह उछल कर फिर ऊपर आ जाती। पानी की धार तो बंधती ही नहीं थी। एक बार
में एक प्याली जितना मानी मुश्किल से निकलता। बाकी पानी तो जैसे पीछे को ही लौट
जाता।
पानी की एक
बाल्टी भरने में ही घंटा लग जाता। कुछ तो नलका चलाते और कुछ थापी से कपड़े का ढ़ेर
धोते बाजु टूटने लगते। बैठी-बैठी की कमर दुखने लगती।
उस दिन छुट्टी
थी।
मैंने शर्माते
हुए इनसे दो बाल्टी पानी भरने के लिए कह दिया। नलका चलाते हुए इन्हें भी एहसास हुआ
कि मुझे रोज़ कितनी परेशानी होती होगी।
मेरी ननद अंदर
से बाहर निकली। इनको नलका चलाते देख बोली, “क्यों भैया! लग गए न आते ही भाभी का
पानी भरने।”
ये झेंप से गए।
मुझे लक्ष्य बना कही गई बात चुभी। फिर भीतर से और भी आवाजें आने लगी।
“पता नहीं आते
ही आदमियों के सिर में क्या धूड़ देती हैं आज कल वाली…।”
“जोरू का गुलाम!”
“पहिले भी तो
यही नलका था…”
हम दोनों को
लगा जैसे ये आवाजें नहीं, जहिर-बुझे तीर हों। ये नलका चलाते थक गए और मैं कपड़े
धोती। लगा जैसे हम इस परिवार के मुजरिम हों। फिर पता नहीं इनके मन में क्या आई,
अचानक इन्होंने नलका चलाना बंद कर दिया। भीतर से आ रही आवाजों का जवाब देनें की
बजाए ये बाहर को चल दिए।
थोड़ी देर बाद
मिस्तरी एक रेहड़े पर बिजली की मोटर लगाने वाला सामान लेकर आ गया। मेरी सारी थकावट
जैसे पंख लगाकर कहीं उड़ गई।
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