कर्मजीत सिंह नडाला (डॉ.)
वह ससुरी कहाँ मानने वाली थी। उसके सिर पर तो बाहर का भूत
सवार था। कैनेडा रहते पति ने फोन पर कहा, “तू जिद न कर। घर पर माँ-बाउजी व बच्चों
को सँभालने की जिम्मेदारी तेरी है। मैंने लौट ही आना है साल बाद। बाहर सैर-सपाटा
नहीं है। यहाँ तो सिर खुजलाने तक का वक्त नहीं मिलता। यहाँ बेकार को कोई रोटी नहीं
देता।…हाँ, ’गर तू वहाँ नहीं रह सकती तो तुझे कोई न कोई कोर्स करना पड़ेगा। फिर ही
तुझे यहाँ आने का फायदा है…।”
वह शहर जाने लगी। सुबह तैयार हो,
सज-संवर कर चल पड़ती। पीछे बूढ़े सास-ससुर, बहू की डाँट से डरते चूल्हा-चौका भी
करते और उसके बच्चों को भी सँभालते।
“यार! यह संत सिंह की बहू रोज सज-संवर कर
किधर जाती है?…घर पर सास-ससुर को तो कुत्ते-बिल्ली समझती है।” एक दिन
बहू को गली में जाते देख एक आदमी ने दूसरे से कहा।
“कहते हैं, शहर जाती है…वहाँ कोई
कोर्स-कूर्स करती है…कहते हैँ फिर बाहर जाकर काम आसानी से मिल जाता है।”
“कोर्स!…अब? दो
बच्चों की माँ होकर कौनसा कोर्स करने चली है?…घर से
ठीक-ठाक है…खाने-पीने को सबकुछ है…बाहर से घरवाला काफी पैसे भेज रहा है, सौ
सुविधाएँ हैं…।׆
“सुना है कोई नैनी का कोर्स कर रही है।”
“नैनी!…यह क्या बला हुई?”
“अरे तुझे नहीं पता! उधर कैनेडा में सभी
लोग अपने काम पर चले जाते हैं। पीछे उनके बूढ़े और बच्चों के नाक-मुँह पोंछा
करेगी…सेवा सँभाल करेगी…और क्या…।”
“अच्छा…यह कोर्स इसलिए होता है…दुर
फिटे-मुँह हमारे लोगों के। यहाँ से जाकर गोरों के बच्चे-बूढ़े सँभालते हैं। इससे
तो अच्छा है कि अपने बच्चों और सास-ससुर को सँभाल ले…ससुरी कैनेडा की…।”
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1 comment:
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १०/७/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आप सादर आमंत्रित हैं |
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