रशीद अब्बास
कार में बैठी डॉक्टर रितिका शर्मा बहुत चिंतित थी। वह
बार-बार ड्राइवर को कार की गति बढ़ाने के लिए कह रही थी। दो घंटे पहले जब वह सिविल
अस्पताल में अपनी ड्यूटी पर थी तो उसे अपनी पुरानी मित्र के क्लिनिक से फोन आया
था। एक गर्भवती औरत का केस था। काफी देर से ‘लेबर-पेन’ होने के बावजूद बच्चे का
जन्म नहीं हो रहा था। उसने फोन पर ही आपरेशन का सामान तैयार रखने को कह दिया था।
दो-तीन मरीजों को देख, अन्य को अगले दिन आने की कह वह अस्पताल से निकलने ही वाली थी।
तभी नए आए एस.एम.ओ. साहिब ने कुछ अति आवश्यक मसलों पर विचार हेतु उसे बुला लिया
था।
डॉक्टरी पेशे के प्रति अपनी
प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते एस.एम.ओ. से डेढ घंटे के विचार-विमर्श के बाद जल्दी
से कार में बैठ वह अपनी मित्र के क्लिनिक की ओर दौड़ पड़ी। रास्ते में वह तरह-तरह
की सोचों में खोई रही।
क्लिनिक पर पहुँचते ही डॉ.
रितिका ने रिसेप्शन-काउँटर पर बैठी लड़की से पूछा, “आपरेशन की
तैयारी हो गई?”
लड़की ने जानी-पहचानी डॉ. रितिका
को कहा, “मैम,
तैयारी तो हमने कर ली थी, पर आपरेशन की ज़रूरत ही नहीं पड़ी…नार्मल डिलिवरी हो
गई…परिवार वाले तो उसे वापस भी ले गए…आपका मोबाइल बंद था, इसलिए आपको बता नहीं
सके…।”
“चलो छोडो… बाहर से डॉक्टर बुलाने के चार्जिज
तो मरीज के परिवार से क्लेम किए ही होंगे…मेरे पैसे भिजवा देना…मैं अस्पताल जाकर
अपनी छुट्टी कैंसिल करवा लेती हूँ।” इतना कह डॉ. रितिका उलटे पाँव कार में जा बैठी। अब
उसके चेहरे पर चिंता के कोई लक्षण नहीं थे।
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