Sunday, 15 July 2012

मुर्दघाट पर खड़ा आदमी


जगदीश अरमानी

कड़ी जैसे तीन जवान आज गोलियों से भून दिए गए। सारे शहर में हाहाकार मची हुई थी।
तीनों की लाशें पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल लाई गईं। पोस्टमार्टम के कमरे के बाहर लोगों की भारी भीड़ जुट गई थी।
कमरे के दरवाजे पर पहरेदार खड़ा था। पहरेदार किसी को अंदर नहीं जाने देता था। फिर भी कोई-कोई कमरे के अंदर जा रहा था, कमरे से बाहर  रहा था।
सतभराई दरवाजे के पास दीवार से लगी खड़ी थी। वह न तो जीवितों में थी न मरे हुओं में।
मैंने उसकी हालत देखकर गेट पर खड़े पहरेदार को कहा, इस बेचारी को भी एक मिनट के लिए अंदर चले जाने दो। अपने बेटे को पलभर देख लेगी।
सरदार जी!उसने बड़ी हिकारत भरी नज़रों से मेरी तरफ देखकर कहा, वह तुम्हारी क्या लगती है? तुम क्यों उसकी सिफारिश कर रहे हो?
नहीं, मेरी लगती तो कुछ नहीं। मैं तो केवल मानवी-नाते आपसे विनती कर रहा हूँ।मैंने कहा।
तो फिर वह खुद कहे।
सतभराई दीवार से लगी सुन रही थी। वह दीवार से जरा हटकर थोड़ा आगे आ गई। मैं ज़रा पीछे हट गया।
माई, तेरा लड़का मारा गया है?उसने पूछा।
हाँ।माई ने सिर हिलाकर हामी भरी।
तो माई यह बता,उसने गुस्से से कहा, तुमने लड़के के क्रियाकर्म पर कुछ नहीं खर्च करना? लकड़ी पर नहीं खर्चेगी या कफन नहीं लेगी? बता क्या नहीं करेगी? ’गर सब कुछ करेगी तो हमारा हक क्यों रखती है?
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