श्याम
सुन्दर अग्रवाल
गली के मोड़ पर पहुँचा तो आज फिर वही बुजुर्ग रिक्शावाला खड़ा था। तीन दिन से
वही खड़ा मिलता है, सुबह-सुबह। मन ने कहा, इसके रिक्शा में बैठने से तो पैदल ही
चला चलूँ, बीस मिनट का तो रास्ता है। घड़ी देखी तो इतना ही समय बचा था। कहीं बस ही
न निकल जाए, सोच कर मन कड़ा किया और रिक्शा में बैठ गया।
मन बना लिया था कि आज रिक्शावाले की ओर बिलकुल नहीं
देखना। इधर-उधर देखता रहूँगा। पिछले तीन दिनों से इसी रिक्शा में बैठता रहा हूँ।
जब भी रिक्शावाले पर निगाह टिकती, मैं वहीं उतरने को मज़बूर हो जाता।
पैडलों पर जोर पड़ने की आवाज़ सुनाई दी और रिक्शा चल
पड़ा। मैं इधर-उधर देखने लगा। ‘ग्रीन मोटर्स” का बोर्ड दिखा तो याद आया कि पहले दिन तो यहीं उतर गया था। बहाना
बना दिया था कि दोस्त ने जाना है, उसके साथ ही चला जाऊँगा। अगले दिन मन को बहुत
समझाया था, लेकिन फिर भी दो गली आगे तक ही जा सका था।
‘कड़-कड़’ की आवाज़ ने मेरी तंद्रा को भंग किया।
रिक्शा की चेन उतर गई थी। मेरी निगाह रिक्शावाले पर चली गई। उसके एक पाँव में
पट्टी बंधी हुई थी और पाँवों में जूते भी नहीं थे। मुझे याद आया कि जब बापू के
पाँव में कील लग गई थी, वह भी ठंड में इसी तरह नंगे पाँव फिरता रहा था। चेन ठीक कर
बुजुर्ग ने पाजामा ऊपर चढ़ाया तो निगाह ऊपर तक चली गई। बापू भी पाजामा इसी तरह ऊपर
चढ़ा लेता था। मुझे लगा, जैसे रिक्शावाला कुछ बोल रहा है। मेरा ध्यान खुद-ब-खुद उस
के सिर की ओर चला गया। उसकी ढ़ीली सी पगड़ी और बोलते हुए सिर हिलाने के ढंग ने
मुझे भीतर तक हिला दिया। बहुत प्रयास के पश्चात भी मैं उस पर से अपनी नज़र नहीं
हटा सका। बेइख्त्यार मेरे मुख से निकल गया, “बापू, रिक्शा रोक।”
वह बोला, “क्या हो गया बाबू जी?”
“कुछ नहीं, एक ज़रूरी काम याद आ गया!” मैंने रिक्शा से उतर उसको पाँच रुपये का नोट देते
हुए कहा।
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