दर्शन जोगा
“आंटी जी!” सुषमा ने आवाज़ लगाते हुए
दरवाजे की बाहर वाली जाली भी खड़काई।
“आजा बेटी, आजा।” आवाज़ सुनते ही पवित्र कौर बोली।
दोनों की आवाज़ें सुनकर बैड पर लेटा सुच्चा सिंह उठ कर बैठ
गया और कमरे में से ही बोला, “आओ बेटे, आ जाओ।”
महीने की पहली तारीखों में इस सेवानिवृत जोड़े की आवाज़
अपने किरायेदारों के प्रति आम दिनों से काफी मीठी हो जाती है।
“बैठो बेटा।” पवित्र कौर ने ड्राइंगरूम में लेजाकर सुषमा को सोफे की ओर इशारा करते हुए
कहा।
“और बेटा, सब ठीक है?”
“हाँ, आंटी जी!” सुषमा ने किराये के पैसे मालकिन की ओर बढ़ाते हुए कहा।
“तेरा स्वास्थ्य कैसा है, कल डॉक्टर के पास गए थे?” पवित्र कौर फिर बोली।
“बस! ठीक ही है, दवाई ले रही हूँ।”
“कोई न बेटी, वाहेगुरु भली करेगा। उसके घर देर है, अँधेर
नहीं। मैं तो तेरे अंकल से भी कई बार बात करती हूँ, भई इतनी नर्म लड़की है बेचारी,
कितने साल हो गए रब्ब की ओर देखती को। कइयों के तो यूं ही फेंके जाता है, पत्थरों
की तरह। और बेटी, जब से अपना लछमन बठिंडे रहने लगा है, हमारा तो आप मन नहीं लगता
बच्चों के बिना।”
“आंटी, आपको तो पता ही है कि मेरे तो सारे टैस्ट ठीक आए हैं।
इनके टैस्ट किए हैं, डॉक्टर कहता है, इन्हें अभी कुछ देर और दवाई लेनी पड़ेगी।
आपके पास तो मन हल्का कर लेती हूँ, सभी को तो नहीं बता सकती न भीतर की बात।”
“चल कोई न बेटी, राम भली करेगा। जाती हुई दरवाजा ढ़ाल देना।”
पति वाले कमरे में जा, पैसे अलमारी में सँभालते हुए पवित्र
कौर बोली, “देख लो बेचारी कितनी ऊनी
है। दोनों जने चुप-चाप बैठे रहते हैं। न खड़का, न दड़का। सुबह ड्यूटी पर चले जाते
हैं, शाम को घर लौटते हैं। कमरे में बैठों का पता भी नहीं लगता।”
“यही तो बात है, उन पहले वालों के तो बच्चे ही नहीं टिकते
थे। तीन-चार थे, साले सारा दिन धमा-चौकड़ी मचाई रखते। इस बार इसी लिए सोच कर मकान
दिया है किराये पर।”
“अच्छा, धीरे बोलो, ऐसे ही अगला कई बार सुन लेता है भीतर की
बात।”
पवित्र कौर ने खिड़की में से बाहर की आहट लेते हुए कहा।
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