Monday 2 April 2012

इज़्ज़त


सुखदेव सिंह शाँत

पड़ोसियों के घर के आगे रोज़ शाम कभी कोई स्कूटर वाला आ जाता, कभी कोई कार वाला। कभी कोई साइकिल पर थैला लटकाए आ पहुँचता। कई बार तो दो-दो, चार-चार आदमी एक साथ भी आ जाते।
माता प्रीतम कौर अकसर अपने बेटे जसवंत से शिकायत करती, नौकरी तो बेटे तू भी करता है, पर पड़ोसियों के मोहन की ओर देख। इसकी भला कैसी नौकरी है? कोई न कोई आया ही रहता है। अपने तो कोई आता ही नहीं। उसकी माँ खुशी से उड़ती फिरती है।
बेटा माँ के पास अपना दुःख व्यक्त करता, माँ, इस युग में अध्यापक को कौन पूछता है! कहने को तो हम कौम के निर्माता होते हैं, पर समाज में हमारा मोल एक टका भी नहीं।
और फिर अचानक लड़के की ड्यूटी बोर्ड की वार्षिक परीक्षा में लग गई।
पता नहीं लोग कहाँ-कहाँ से घर पूछ कर उनके आ पहुँचे।
शाम को तो जैसे कतार ही लग गई। प्रीतम कौर के पाँव ज़मीन पर नहीं लग रहे थे। जैसे उसने मोहन की माँ से कोई बड़ा मोर्चा जीत लिया हो।
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1 comment:

पीयूष त्रिवेदी said...

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