Monday, 26 March 2012

साँप


जगदीश राय कुलरियाँ

कई दिनों से बरसात रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। लोग पशुओं के चारे के लिए भी परेशान थे। साहसी लोग सिर पर खाली बोरियाँ ओढ़ खेतों में से चारा लेने जा रहे थे।
अपने इकलौते बेटे जीत को खेत की ओर जाते देख, प्रीतम कौर के मुख से निकल गया, पुत्तर! जरा देख कर जाना… इस मौसम में ससुरे साँप-संपोलिए सब बाहर निकल आते हैं…
इस एक वाक्य ने उसके जीवन के पिछले जख़्मों को हरा कर दिया। उसे याद आया कि पति की रस्म-पगड़ी के बाद रिश्तेदारों ने ज़ोर देकर उसके जेठ के बड़े बेटे को उनके पास सहारे के रूप में छोड़ दिया था।  एक रात अचानक उसकी नींद खुल गई। उसने देखा कि वह लड़का उसकी सो रही जवान बेटियों के सिरहाने खड़ा कुछ गलत करने की चेष्टा कर रहा था।
जा निकल जा मेरे घर से…ज़रूरत नहीं है मुझे तेरे सहारे की…मैं तो अकेली ही भली…भगवान सहारे अपनी मेहनत मज़दूरी से बच्चों को पाल लूँगी…जा तू दफा हो जा…अगली सुबह रोते हुए उसने जेठ के लड़के को घर से बाहर कर दिया था।
‘जानवर तो छेड़ने पर ही कुछ कहते हैं, उसका तो पता होता है कि भई नुकसान पहुँचा सकता है, पर आस्तीन के साँप का क्या पता कि किस वक्त डस ले…अतीत की बातों को याद करते हुए प्रीतम कौर का मन भर आया।
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