प्रीतम बराड़ लंडे
“क्यों सरदूल सिंह?”
“हाँ, साहब जी!”
“मुझे लगता है इस गाँव में मुर्ग़े बहुत हैं।”
“बस कुछ मत पूछो साहब जी! आधी रात से ही बाँग देने लग पड़ते हैं। एक से बढ़कर एक, हैं भी सभी देसी।”
“तुझे कैसे पता लगा कि सब देसी हैं?”
“साहब जी, देसी व दूसरे मुर्ग़े की बाँग में बहुत फर्क होता है।”
“वह कैसे?”
“साहब जी, देसी मुर्ग़े की बाँग लंबी व टंकार वाली होती है और दूसरे मुर्ग़े की दबी-सी जैसे कंठ में ही फंस गई हो।”
“फिर बनाई है कोई स्कीम, सरदूल सिंह?”
“साहब जी, स्कीम का क्या है। सारा सामान अपने थाने में पड़ा है। रात को घड़ों में दो-दो किलो गुड़ डाल कर मुर्ग़े वालों के खेतों में रख देंगे, परसों को छापा मारेंगे। आज जिन मुर्ग़ों की बाँग अपने कानों में पड़ रही हैं, परसों को वे मुर्ग़े अपने पेट में पड़ जाएँगे।”
बड़े साहिब ताली बजा कर ज़ोर से हँसे। फिर हवलदार सरदूल सिंह के कंधे पर हाथ रखकर बोले, “मेरे साथ रहेगा तो फीतियों की कमी नहीं रहेगी, सरदूल सिंह।”
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2 comments:
bilkul sahi jagah tamacha maara hai ....
बहुत सुन्दर ब्यंग| धन्यवाद|
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