Monday 17 October 2011

बस-पास


जंग बहादर सिंह घुम्मन

जी.टी. रोड पर अमृतसर से जालंधर जा रही रोडवेज की बस लगभग खाली ही थी। एक अड्डे से चढ़े पाँच बावर्दी पुलिस के सिपाही अगले अड्डे पर उतर गए थे। सारा दिन ड्यूटी करने के पश्चात, घर लौट रहे दो हरे थैले वाले’(रोडवेज कर्मचारी) मुलाज़िम पिछली सीटों पर बैठे ऊँघ रहे थे।
दुखी कर छोड़ा है यार, इन मुफ्तखोरों ने।कंडक्टर ने एक नंबर सीट पर बैठते हुए ड्राइवर से गुस्से व व्यंग्य के लहज़े में कहा।
कुछ बचा आज की बोतल के लिए कि नहीं?ड्राइवर ने हँसते हुए पूछा।
नहीं यार! दो बार तो इंस्पैक्टर ही आ गया। दो सौ रुपये ले गया। मैं तो डरता ही रहा आज।
तीन सवारियाँ उठीं। उनका अड्डा आ गया था। सामने देखा तो अड्डे पर लगभग पैंसठ वर्ष की एक औरत खड़ी थी। चिंतित लग रही वृद्धा ने दोनों हाथ खड़े करके बस रोकने की विनती की। उसकी घबराहट, उसके बस रोकने के ढंग से साफ झलकती थी।
दफा कर, पास होगा इसके पास। सवारियाँ थोड़ा आगे करके उतार दे।कंडक्टर ने ड्राइवर को सलाह दी।
बस रुकते-रुकते अड्डे से कोई पचास मीटर आगे निकल गई। बस में खड़ी सवारियाँ धीरे-धीरे आगे बढ़ीं। वृद्धा ने बस रुकते देख कमज़ोर-सी दोड़ लगाई। अभी पहली सवारी ही उतरी थी कि साँस फुलाए वह उतर रही सवारियों के आगे आ गई। पर इससे पहले कि वह चढ़ने के लिए पाँव सीढ़ी पर रखती, कंडक्टर ने खटाक से दरवाजा बंद कर लिया।
बेटा, मेरे मायके में मर्ग हो गई, मेरा पहुँचना बहुत जरूरी है।उसने मिन्नत की।
नहीं माई, सीट नहीं है।कहकर कंडक्टर ने कुंडी लगा ली।
वृद्धा बस के साथ चली, थोड़ी दौड़ी भी।
बेटे, मेरे पास पैसे हैं। खोल दे दरवाजा।
पर नहीं, बस बंद रही। वृद्धा बस को धुँधली नज़रों से ओझल होते देखती रही।
सूरज छिप चुका था। अँधेरा पसर रहा था।
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