Thursday, 25 June 2009
फासला
धर्मपाल साहिल
किसी कैदी के जेल से छूटने की तरह, वह भी विभाग द्वारा लगाए गए एक माह के रिफ्रेशर कोर्स से फ़ारिग होकर, अपने परिवार के पास उड़ जाना चाहता था। घिसे-पिटे से बोर लेक्चर। बेस्वाद खाना। अनजान साथी। बेगाना शहर। फुर्सत के क्षणों में उसे अपने सात वर्षीय बेटे राहुल की छोटी-छोटी बातें और मन लुभावनी शरारतें बहुत याद आतीं। उसका मन करता कि वह रिफ्रेशर कोर्स बीच में ही छोड़कर भाग जाए अथवा छुट्टी लेकर घर का चक्कर लगा आए। पर आकाश छू रहे किराये का ध्यान आते ही उसकी इच्छा मर जाती। वह सोचता किराये पर खर्च होने वाले पैसों से ही वह राहुल के लिए एक सुंदर-सा खिलौना ले जाकर उसे खुश कर देगा।
कई घंटों का सफर तय करके वह अपने घर पहुँचा। ‘सरप्राइज’ देने के विचार से वह दबे पाँव घर में दाखिल हुआ। टी.वी. के सामने बैठा राहुल फिल्म में खोया हुआ था। उसने दोनों बाँहें फैलाते हुए मोह भरी आवाज में कहा, “राहुल, देखो कौन आया है?”
राहुल ने उसकी आवाज सुन कर भी उसे अनदेखा कर दिया। उसने बैग से खिलौना निकाल कर दिखाते हुए फिर कहा, “राहुल, देख मैं तेरे लिए क्या लाया हूँ।”
राहुल ने टी.वी. स्क्रीन पर हो रही ‘ढिशूँ…ढिशूँ’ पर ही आँखें गड़ाए, एक हाथ से ट्रैफिक-पुलिस की तरह रुकने का इशारा कर कहा, “एक मिनट रुको पापा…यह सीन खत्म हो जाने दो।”
राहुल को गोद में उठा प्यार करने के लिए आतुर उसके बाजू कटी हुई शाखाओं की तरह नीचे की ओर लटक गए और खिलौना हाथ से छूट कर फर्श पर गिर गया।
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4 comments:
वास्तविकता को दर्शाता कै आपका यह आलेख......आज कल बच्चें संवेदन हीन होते जा रहे हैं। लेकिन जिम्मेवार कौन है....??
बच्चों का टीवी और कम्प्यूट्र के प्रति सम्मोहन ऐसी स्थितियाँ ला रहा है. अफसोसजनक.
परमजीत ठीक पूछ रहे हैं-लेकिन जिम्मेदार कौन?
बहुत अच्छी रचना. परिवर्तन के इस दौर मे प्राथमिकताए भी परिवर्तित हुई है.
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