Friday, 19 June 2009

भूखी शेरनी


नरेन्द्र बरगाड़ी
“उम्र की कुछ बड़ी है, परंतु शरीर मक्खन-सा है!”
“संगमरमर की मूर्ति-सी दिखती है”
“मगर है भूखी शेरनी। आदमी को नींबू की तरह निचोड़ डालती है।”
“जवान लड़के ढूंढती है।”
सामने मकान में रहने वाली औरत के विषय में वह लोगों से रोज ही सुनता था। वह, यानी एक कच्ची उम्र का लड़का, जवानी की दहलीज़ पर कदम रखता हुआ। उसका मन करता कि वह भी उसके पास जाए।
पिता से किताब खरीदने के बहाने बीस रुपए का नोट लेकर उसके कदम उस मकान की ओर बढ गए। मकान के भीतर पहुँच कर जब उसने उस औरत का दमकता हुआ चेहरा देखा तो उसकी आँखें झुक गईं।
“कैसे आया?” औरत ने पूछा तो झिझकते हुए उसने बीस रुपए का नोट आगे कर दिया।
“इधर मुझसे नज़रें मिला कर बात कर। घर से चुराकर लाया है या पुस्तक के लिए?”
सख्त आवाज में औरत का सवाल सुन, उसके होश उड गए। वह नज़रें झुकाए, पत्थर का बुत बनकर खड़ा रहा।
वह आगे बढ़ी और नोट उसकी जेब में डालते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया। कुछ देर वह वैसे ही खड़ी रही, फिर भारी आवाज में बोली, “बेटा, इन पैसों से किताब ही खरीदना और इस तरह पैसे लेकर यहां फिर कभी नहीं आना…।”
लड़के को लगा जैसे कोसे पानी की दो बूँदें उसके सिर से होती हुईं उसके कानों तक आ गई हों।
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