Wednesday, 3 June 2009

तरकीब


हरभजन खेमकरनी
रसोईघर में काम कर रही अमनजोत अपने दो वर्षीय बेटे मिंटू की ओर से बड़ी चिंतित थी–लड़का सारे दिन में मुश्किल से एक गिलासी दूध ही पीता है। रोटी की तरफ तो देखता भी नहीं। फल-फ्रूट काट-काट कर फेंक देता है। डाक्टर कहते हैं कि पेट की कोई तकलीफ नहीं। कहीं महिंदरो की बात ठीक न हो कि किसी शरीकन ने तावीज ही न खिला दिया हो कि लड़का घुट-घुटकर मर जाए।
वह अभी इसी उधेड़-बुन थी कि “ अरी बहू, लस्सी है थोड़ी-सी?…दिल घबरा-सा रहा है। सोचा, लस्सी पीकर देख लूँ, शायद कलेजे में ठंड पड़ जाए।” बुज़ुर्ग करतार कौर की आवाज उसके कानों में पड़ी।
“ आ जाओ माँ जी, है लस्सी, नमक वाली लाऊं कि मीठेवाली? और माथा टेकती हूँ माँ जी।”
“ जीती रह बहू, तेरा साँई जीए! रब जोड़ी बनाए लड़कों की! लस्सी में नमक डाल दे और बर्फ है तो एक डली वह भी डाल देना।”
फ्रिज में से बर्फ निकाल लस्सी में डालते हुए अमनजोत को ध्यान आया कि बूढ़ी औरतों के पास बहुत से टोटके होते हैं। “ लो माँ जी, लस्सी,” लस्सी का गिलास करतार कौर की ओर बढ़ाते हुए उसने कहा,“ और एक बात पूछनी थी, आपका पोता पता नहीं क्यों रोटी नहीं खाता?”
“ बहू, गुस्सा न करे तो एक बात बताऊँ। परसों हवेली में तेरे ससुर के पास बैठी थी कि छिंदी रोटी लेकर आई। मिंटू भी साथ था। तेरे ससुर ने मिंटू को घुटने पर बैठाया तो दोनों एक दूसरे के मुँह में रोटी के कौर डालते रहे। मेरे ख्याल में तो लड़का आधी रोटी खा गया होगा। तुम कह रही हो कि लड़का रोटी नहीं खाता!”
“ लेकिन मैने तो हर हीला कर के देख लिया, मुझसे तो रोटी खाता नहीं।”
“ बच्चों को रीस करने की आदत होती है, बहू। दादा-दादी के साथ तुम खाने-पीने नहीं देती, कहती हो बीमारी लग जाएगी।” बुढ़िया ने मन की भड़ास निकाली।
“ आप ही बताओ, अब मैं क्या करूं?”
“ आजकल की पढ़ी-लिखी बहुओं ने बच्चों को मार-झिड़क कर खिलाना सीखा है। बच्चे सहम जाते हैं। बच्चे को प्यार से पास बिठाकर रोटी खिला। दो-चार दिन में आदत पड़ जाएगी। बहू, ये टी.वी. देखने की जल्दी ही तुम्हें बच्चों से दूर कर रही है।” लाठी का सहारा लेकर उठते हुए करतार कौर ने समझाया।
शर्मिंदा-सी हुई अमनजोत रसोईघर की ओर चल दी।
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