तरसेम गुज़राल
दिनेश साहब का केबिन कुछ इस तरह था कि कांच की दीवारें चारों तरफ ज़्यादा से ज़्यादा कर्मचारियों पर नज़र रख सकें ।
पिछले कुछ दिनों से पार्वती माई पर उनकी खास नज़र थी । पार्वती पिछले दस सालों से वहां काम कर रही थी । पहले चरखे पर ऊन अटेरती थी, बाद में उसे रफू के काम पर लगा दिया गया। पर उसकी सेहत लगातार बिगड़ती जा रही थी । मशहूर था कि साहब के दादा ने अपने बीमार घोड़े को गोली मरवा दी थी । पर इस दादा का पोता होने पर भी वह इतना निर्मोही व पत्थर दिल नहीं था ।
पार्वती को लगातार बीमार-सी व सुस्त देखकर उसने उसकी तनख़्वाह कम कर दी, पर उसने नौकरी पर आना नहीं छोड़ा । दो-तीन महीने बाद उन्होंने फिर उसकी तनख़्वाह कम कर दी । पार्वती माई ने कोई शिकायत न की । बस, गुज़रते हुए पहले जो हाथ जोड़कर नमस्कार करती थी वह बंद कर दी ।
पिछले कई दिनों से दिनेश साहब ने नोट किया कि पार्वती माई का बेटा रोज सुबह रिक्शा से उसे फाटक तक छोड़ जाता है और शाम को रिक्शा पर ले जाता है ।
अगले दिन उन्होंने टोका, “ तुम्हें पता है, तुम्हारी मां बीमार है ?”
“ हां सा'ब, उन्हें टी.बी. है ।”
“ तुम इलाज क्यों नहीं करवाते ? यह उम्र उनके काम करने की है ?”
“ मैं रोक भी कैसे सकता हूं सा'ब, मेरी तीन जवान बेटियां हैं । पेट का नरक भरने से ही फ़ुर्सत नहीं । हाथ पीले करने को कहां से लाऊं । माई ने तो मेरा घर कोठा बनने से रोका हुआ है ।”
दिनेश साहब की नज़र पार्वती माई पर पड़ी । गिरते कदमों से भी वह भार उठाती, पहाड़ पर चढ़ने वाली औरत से कम नहीं लग रही थी ।
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