श्याम सुन्दर अग्रवाल
सेना और प्रशासन
की दो दिनों की जद्दोजेहद अंतत: सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फंसे नंगे बालक
प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं
जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे।
दीन-दुनिया
से बेखबर इलैक्ट्रानिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा
था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा खिंडने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला
माहौल मातमी-सा हो गया। टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे
थे। अपना साजोसामान समेट कर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के
गाँव का एक युवक आया और बोला, “हमारे
गाँव में भी ऐसा ही…”
युवक की बात पूरी होने से पहले ही
संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, “क्या
तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?”
“नहीं।”
युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा
फिर से बुझ गया, “तो फिर क्या?”
“हमारे
गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है,” युवक ने बताया।
“तो फिर
मैं क्या करूँ?” झुँझलाया संवाददाता बोला।
“आप महकमे
पर जोर डालेंगे तो वे गड्ढा बंद कर देंगे। नहीं तो उसमें कभी
भी कोई बच्चा गिर सकता है।”
संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक
दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से
कहा, “ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस
बोरवैल में गिरे मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें
इनाम दिलवा दूँगा।”
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