हरभजन सिंह
खेमकरनी
नया स्कूटर खरीदने संबंधी
घर में विचार-विमर्श चल रहा थी। कभी बैंक से कर्जा लेने की बात चली तो कभी किसी
रिश्तेदार से पैसे उधार लेने की। पर कोई भी बात सिरे नहीं लग रही थी।
मनजोत की सास इशारे
से उसे अपने मायके से पैसे लाने को कह चुकी थी क्योंकि उसके भाई पैसे वाले थे। अगर
वे बहन को स्कूटर ले देंगे तो उसे ही आने-जाने की मौज हो जाएगी। लेकिन मनजोत सास
की बात सुनी-अनसुनी कर देती। परंतु कुछ दिनों से पति का रूखा व्यवहार भी उसे सास
की बात ही दोहराता लगता। उसे लगा कि दहेज रहित करवाए गए आदर्श विवाह के समय तय किए
गे उसूलों में दरारें पडने लगी हैं। पिछले कुछ समय से घर के कुछ सदस्यों के
व्यवहार में आई तबदीली से भी वह परेशान थी। उसकी सोच इस बात पर आ कर अटक जाती कि
एक माँग पूरी होने पर दूसरी माँग उठ खड़ी होगी। इसलिए उसने खामोशी का दामन पकड़े
रखा।
घर में होती
खुसुर-फुसुर को महसूस कर मनजोत के ससुर ने अपनी पत्नी को पास बैठा कर समझाते हुए
कहा कि वह बहू को मायके से पैसे लाने के लिए परेशान न करे। आगे से पत्नी तमक कर
बोली, “अपना आदर्श अपने पास रखो, शादी के समय तो
बाप-बेटे ने दहेज न लेकर बहुत बल्ले-बल्ले करवा ली। अब बहू स्कूटर के लिए पैसे ले
आएगी तो उन्हें क्या घाटा पड़ जाएगा, बहुत पैसा है उनके पास…आजकल तो लोग कारें दे रहे हैं।”
“पैसे वाले तो तेरे भाई भी हैं, उनसे स्कूटर के लिए पैसे माँग ले, तू भी तो इस
घर की बहू ही है। मुझे कौन सा उन्होंने शादी के समय स्कूटर दिया था।” पति ने हँसते
हुए कहा।
पति की बात सुन पत्नी माथे पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछने लगी।
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